इतिहास की चाय, नेताओं की राय
डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’
सुभाषू का ठेला था। स्कूल के सामने। वहां इतिहास नहीं, चाय बिकती थी, पर बहस वही थी- कौन सा राजा सही, किसने किया बलिदान ज़्यादा, किसकी मूंछें बड़ी थीं। सुभाषू के पास एक खटारा रेडियो था, जिस पर कभी "मन की बात" और कभी मन की भड़ास बजती थी। हर घूंट चाय के साथ बहस गरम, दिमाग ठंडा। पर सुभाषू का दुख ये था कि इतिहासपुरुष तो किताबों में थे, उसकी बेटी कविता तो आज भी पुराने बस्ते में स्कूल जाती थी। स्कूल का बस्ता था कल के राजा, आज के लोकतंत्र और कल की बेरोज़गारी का गठजोड़।
"अबे सुन बे रामखिलावन, इतिहास का क्या रखा है? आज राजा वही है, जिसके हाथ में सोशल मीडिया की तलवार है!"- पप्पू गुटखा चबाते हुए बोला। पप्पू वही था, जिसने एक बार ‘गांधी जयंती’ पर 2 अक्टूबर को ‘हैप्पी बर्थडे सरदार पटेल’ लिख दिया था। "क्यों बे, गांधी और पटेल दोनों की जयंती एक ही दिन होती है क्या?" - जब कोई पूछे, तो पप्पू तुरंत कहता — "भाईसाब, इतिहास को भावनाओं से मत जोड़ो। इमोशन्स में नेशन बर्बाद होता है।"
इधर चाय के ठेले पर बहस चल रही थी — "शिवाजी महाराज ने मुसलमानों से कितनी लड़ाइयां लड़ीं?" एक गुट ने तुरंत टोक दिया, "नहीं, उन्होंने तो धर्मनिरपेक्षता का झंडा उठाया था!" तभी एक नेता टाइप बनियान वाला आया और बोला — "हमारी सरकार इतिहास को नया आयाम देने जा रही है। अब से टीपू सुल्तान की जगह वीर सावरकर की मूर्ति लगेगी।" सबने ताली बजाई, बस सुभाषू की बूढ़ी मां ने एक लंबा आह भरा — "इतिहास बदला है बेटा, पर घर की छत आज भी टपकती है।"
टीचर मिर्चीलाल आये, बोले — "इतिहास क्या है जानते हो? भूले-बिसरे कवियों की रचनाएं और नेताओं की घोषणाएं। जिसमें सिर्फ तारीखें बदलती हैं, सच्चाई वहीं की वहीं रहती है — लाचार!" सुभाषू ने पूछा — "सर जी, आपकी किताब में चंद्रगुप्त मौर्य अब भी हैं या उन्होंने भी पार्टी बदल ली?" मिर्चीलाल बोले — "बेटा, अब किताबें सीबीएसई से नहीं, व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी से बनती हैं।"
अचानक एक दिन टीवी पर खबर आई — "बड़ी घोषणा: सुभाषचंद्र बोस की जगह अब नेताजी भोलानाथ यादव की मूर्ति लगेगी, क्योंकि उन्होंने 1972 में गांव की सड़क का फीता काटा था।" सब चौंके। कविता बोली — "पापा, नेताजी कौन थे?" सुभाषू बोला — "बेटा, ये वो लोग होते हैं जो तुम्हारे जैसे बच्चों की किताब से असली नायक को निकालकर अपना नाम घुसेड़ देते हैं।" कविता बोली — "तो क्या हमें झूठ पढ़ना होगा?" सुभाषू ने गहरी सांस ली — "बेटा, आजकल सच पढ़ना राजद्रोह है।"
अभी बहस का दौर चल ही रहा था कि गली में एक मूर्ति टूटी हुई मिली — सरदार पटेल की। किसी ने लिखा — "पार्टी चेंज कर ली थी, अब वो हमारे नहीं रहे।" रात में फिर खबर आई — "महापुरुषों की मूर्तियों पर हमला करने वालों को देशद्रोही माना जायेगा।" और सुबह, उसी नेता ने प्रेस कांफ्रेंस में कहा — "हमने मूर्तियों पर हमला नहीं किया, सिर्फ इतिहास को नया स्वरूप दिया है।" इतिहास ने एक और करवट ली, और कविता के स्कूल में एक नया चैप्टर जुड़ गया — “महान नेता भोलानाथ यादव का ऐतिहासिक योगदान।”
धीरे-धीरे कविता बड़ी हो गई, पर देश वही रहा — एक ऐसा देश जहां हर नेता को किसी न किसी इतिहासपुरुष की आड़ में चुनाव जीतना था। किसी ने गांधी के नाम पर दुकान खोली, किसी ने अंबेडकर के नाम पर वोट मांगे। कविता की शादी एक क्लर्क से हुई, जो हर महीने वेतन न मिलने पर "जय सुभाष" चिल्लाता था। कविता पूछती — "इससे क्या होगा?" वो कहता — "इतिहासपुरुष का नाम लेने से पेट नहीं भरता, लेकिन असली मुद्दों से ध्यान ज़रूर भटक जाता है।"
एक दिन सुभाषू का चाय ठेला हटाया गया। कारण था — "विकास परियोजना के तहत ऐतिहासिक सड़क का निर्माण।" ठेले की जगह अब एक स्मारक बना — “नेता जी का प्रेरणा स्थल।” उसी पर लिखा था — "इस ऐतिहासिक स्थान पर नेताजी ने भाषण दिया था — वोट दो, सब मिलेगा।"
पर न चाय मिली, न कविता को नौकरी। न सुभाषू की मां को इलाज मिला, न उसके बेटे को स्कॉलरशिप। इतिहासपुरुष की मूर्ति के नीचे सब तस्वीर खिंचवा रहे थे, पर सुभाषू की आंखें गीली थीं — "इतिहास ने बहुत कुछ दिया बेटा, बस हमें कभी गिनती में नहीं रखा। हम हमेशा उन पन्नों में रहे जो किताब से फटे हुए थे।"
कविता ने एक पुरानी किताब खोलकर देखा — “इतिहास” शीर्षक था। उसमें दर्ज एक पंक्ति ने रुला दिया —
"जिन्होंने इतिहास रचा, उनका नाम नहीं बचा; जिनके नाम पर इतिहास रचा गया, उनका काम नहीं बचा।"
इतिहासपुरुष की मुस्कुराती मूर्ति के पीछे, एक गरीब चाय वाला खुद को इतिहास से बेदखल पाता रहा। और चाय का उबाल ठंडा पड़ता गया।
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