इलमा अज़ीम
अप्रैल आरंभ में जब शुष्कतापूर्ण गरमी पडऩी आरंभ हुई तो लोगों ने सोचा कि इस बार अप्रैल के उत्तरार्द्ध से लेकर और वर्षा ऋतु आने तक ग्रीष्म-ताप से जीवन बुरी तरह पस्त हो जाएगा, किंतु मई के दो हफ्तों तक मौसम वर्षाऋतु जैसा हो उठा। इस कारण उत्तर और मध्य भारत में वर्षा, अंधड़, आंधी आने, बिजली गिरने और बादल फटने की अनेक घटनाएं हुईं।
ऐसे मौसमीय परिवर्तन द्वारा जलवायु तो शीतल हो ही गई और लोग इस मौसम का आनंद भी लेते रहे, किंतु जलवायु के प्रति संवेदनशील लोगों के मन-मस्तिष्क में यह चिंता भी पसर गई कि यह कैसा मौसम परिवर्तन है! छह प्रमुख ऋतुओं में विभाजित मौसम ऋतुओं के अनुसार प्रसारित जलवायु के समय-संतुलन के साथ स्थिर है ही नहीं। आधुनिकीकरण, नगरी व महानगरीकरण के कारण पहले ही मनुष्य का जीवन वन-वनस्पतियों से वंचित है, ऊपर से जलवायु असंतुलन द्वारा उत्पन्न आकाशीय, क्षितिजीय धुंध-धूल उसे जीवन के अनुभव से हीन कर रही है। मौसम की अस्थिरताएं विचित्र स्थितियां उत्पन्न कर रही हैं।
ऐसे में मनुष्य क्या करे, कहां जाए? आज से कुछ वर्ष पहले नगरों में रहकर इस प्रकार की मौसमीय अस्थिरताओं से दुखित होने के बाद, इनसे बचने लोग गांवों की ओर प्रस्थान किया करते थे, किंतु अब तो क्या नगर और क्या गांव, सब एकसमान हो चुके हैं, बल्कि गांव तो न पूरी तरह गांव ही रहे और न ढंग से नगरीय शैली में ही ढल पाए हैं। पिछले चालीस-पचास वर्षों में पदार्थों और खनिजों के उत्खनन की गतिविधियां बहुत ज्यादा बढ़ गई हैं।
इस परिस्थिति में मनुष्य जीवन का भविष्य और भावी दशा-दिशा क्या होगी, यह सोचकर ही भय लगता है। केदारनाथ आपदा से लेकर कोरोना महामारी तक देश-विदेश में उत्पन्न कई अन्य प्राकृतिक-कृत्रिम आपदाओं-महामारियों के रूप में प्रलय का प्रत्यक्ष दर्शन तो इस समय के जीवित लोगों ने कर ही लिया है।
इसके बाद भी यदि विज्ञान, प्रगति, आधुनिकता और भोगोपभोगी भविष्य के लालच में, तरक्की के भ्रमित छल में मनुष्य फंसे रहना चाहता है तो यह उसका दुर्भाग्य। ऐसे में हमें प्रकृति की संवेदना को समझना होगा। उसे संरक्षित करना होगा।
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