बदलता नजरिया
इलमा अज़ीम
आजकल लोग अपनी आजादी और मर्जी को ज़्यादा मानने लगे हैं। अदालतें भी सोचने लगी हैं कि किसी को जबरदस्ती साथ रहने के लिए कहना ठीक नहीं। इसलिए, अब वैवाहिक अधिकारों की पुनर्स्थापना पहले जितना आसान नहीं रहा। अब अदालतें वैवाहिक अधिकारों की पुनर्स्थापना कानून के बारे में चिंताएं व्यक्त कर रही हैं। उनका मानना है कि इस कानून का इस्तेमाल किसी व्यक्ति को उसकी इच्छा के विरुद्ध विवाह में बने रहने के लिए मजबूर करने के लिए किया जा सकता है।
यह चिंता महिलाओं के लिए अधिक है, जिन्हें अक्सर अपने पति के साथ रहने के लिए बाध्य किया जाता है, भले ही वे दुर्व्यवहार, क्रूरता झेल रही हों। अदालतों की चिंता यह भी है कि क्या यह कानून नागरिकों के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है। मुख्य रूप से, अदालतें निजता और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकारों के संभावित उल्लंघन पर फोकस कर रही हैं, जिसकी अनुच्छेद 21 के तहत गारंटी है। अदालतें अब यह देखती हैं कि क्या वाकई दोनों साथ रह सकते हैं या फिर उन्हें अपनी ज़िंदगी अपनी मर्जी से जीने का हक है। अब यह ज़्यादा ‘पसंद’ की बात हो गई है, न कि सिर्फ कर्तव्य की। अब कानून नहीं कहता कि हर हाल में साथ रहो।
देखता है कि क्या दोनों अपनी इच्छा से साथ रहना चाहते हैं। पहले माना जाता था कि विवाह में पति-पत्नी का एक साथ रहना उनका कर्तव्य है, और यदि कोई एक साथी अलग रहना चाहता था, तो अदालत उसे वापस आने के लिए मजबूर कर सकती थी। लेकिन, अब अदालतें भी समझने लगी हैं कि किसी को उसकी इच्छा के विरुद्ध रिश्ते में रहने को मजबूर करना सही नहीं। कानून ‘कर्तव्य’ से ‘पसंद’ की ओर बढ़ रहा है। कई अन्य देशों में, वैवाहिक अधिकारों की पुनर्स्थापना का कानून या तो पूरी तरह समाप्त कर दिया गया है, या इसे बहुत ही कम और विशिष्ट हालात में इस्तेमाल किया जाता है।
इन देशों में कानूनी दृष्टिकोण इस मान्यता पर आधारित है कि व्यक्ति को इस मामले में अधिकार होना चाहिए कि वह किसके साथ अपना जीवन बिताना चाहते हैं। यानी राज्य को इस व्यक्तिगत और अंतरंग मामले में हस्तक्षेप का हक नहीं। इस सोच के पीछे अहम कारण निजी स्वतंत्रता और स्वायत्तता को सर्वोपरि माना जाना है। पति हो या पत्नी, दूसरे के साथ रहने के लिए मजबूर करना मानवाधिकार उल्लंघन माना जाता है। यह निजता के अधिकार और यह तय करने की स्वतंत्रता का हनन है कि वे निजी जीवन में कैसे संबंध रखना चाहते हैं।
इसके अतिरिक्त, कई देश तर्क देते हैं कि जबरदस्ती से बनाए गए रिश्ते अक्सर अस्वस्थ और दुखद होते हैं। यदि एक साथी संबंध से बाहर निकलना चाहता है, तो उसे वापस रहने के लिए मजबूर करने से केवल तनाव, मनमुटाव और संभावित दुर्व्यवहार ही बढ़ सकता है। कानून का उद्देश्य रिश्तों को बनाए रखना होना चाहिए, लेकिन ऐसे रिश्तों को नहीं जो आपसी सहमति और सम्मान पर आधारित न हों। कुछ देशों ने इस कानून को इसलिए समाप्त कर दिया कि यह लैंगिक रूप से पक्षपातपूर्ण है। इस का इस्तेमाल अक्सर महिलाओं को उनके अनिच्छुक पतियों के साथ वापस रहने के लिए मजबूर करने को किया जाता था, जबकि पुरुषों को ऐसी बाध्यता का सामना शायद ही कभी करना पड़ा।
लेंखिका एक स्वत्रंत पत्रकार है यह उनके अपने विचार है
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