सवाल तो उठते हैं!

 इलमा अज़ीम 
पहलगाम आतंकी हमले से हुई जनहानि तमाम सवालों को जन्म देती है। हर किसी संवेदनशील मन में घटनाक्रम को लेकर अनेक प्रश्न उभरते हैं। आम विमर्श में यह मुद्दा उठता रहा है कि जम्मू-कश्मीर के इस संवेदनशील क्षेत्र में सेना की उपस्थिति क्यों नहीं थी। आखिर इस हमले की भनक हमारे खुफिया तंत्र को क्यों नहीं लगी। 
जम्मू-कश्मीर देश का सीमावर्ती व संवेदनशील क्षेत्र है। दशकों की आतंकी घटनाओं के चलते इस क्षेत्र में सेना, केंद्रीय सुरक्षा बलों, खुफिया एजेंसियों तथा स्थानीय पुलिस की उपस्थिति देश के अन्य राज्यों के मुकाबले काफी ज्यादा रहती है। सवाल यह भी है कि आखिर खुफिया एजेंसियों से किस स्तर पर और क्यों चूक हुई। 
आखिर स्थानीय व विदेशी आतंकवादी इतनी आसानी से हमारे सुरक्षा चक्र को भेदने में कैसे सफल रहे? ऐसे तमाम सवाल हमारे नीति-नियंताओं से पारदर्शी जवाब मांग रहे हैं। ऐसे में सिर्फ सार्वजनिक रूप से बयान देने से काम चलने वाला नहीं है। हमें सुरक्षा व्यवस्था व खुफिया तंत्र की उन तमाम खामियों को दूर करना होगा, जिनके अभाव में आतंकवादी अपने खतरनाक मंसूबों को अंजाम देने में सफल हो सके। निस्संदेह, कश्मीर यात्रा के दौरान सेना प्रमुख जनरल द्विवेदी ने सुरक्षाबलों के बीच ऑपरेशनल समन्वय की समीक्षा की। लेकिन राष्ट्र और कश्मीरी सिर्फ प्रोटोकॉल को सख्त करने से कहीं अधिक चाहते हैं।



 पहलगाम आतंकी हमले के आलोक में खुफिया जानकारी साझा करने के तंत्र को सक्षम बनाने, तेज प्रतिक्रिया ढांचे के निर्माण और सुरक्षा तंत्र की मजबूती को मूर्त रूप देने की जरूरत है। कश्मीर को लेकर हमारे दांव हमेशा ऊंचे होते हैं, अब चाहे वे सैन्य, भावनात्मक और राजनीतिक रूप से हों। 


हमें पहलगाम आतंकी हमले में अपनों को खोने वाले लोगों के दर्द को संवेदनशील ढंग से महसूस करना चाहिए। आज वास्तविक स्थिति में बदलाव की जरूरत है ताकि हमारे राष्ट्रीय संकल्पों को संबल मिल सके। हमें जमीनी असहज सच्चाइयों का सामना करना होगा। इनसे मुकाबला करने की दृढ़ इच्छाशक्ति ही भविष्य की चुनौतियों से पार पाने में हमें सक्षम बना सकती है।
 लेखिका एक स्वत्रंत पत्रकार 

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