ग्लोबल वार्मिंग और तपती धरती
इलमा अज़ीम 
‘ग्लोबल वार्मिंग’ से तात्पर्य पृथ्वी के पर्यावरण के तापमान में लगातार बढ़ोतरी से है। हमारी धरती माता सूर्य की किरणों से उष्मा प्राप्त करती है। गौरतलब है कि मनुष्यों, प्राणियों और पौधों को जीवित रहने के लिए कम से कम 16 डिग्री सेल्सियस तापमान की आवश्यकता होती है। वैज्ञानिकों का मानना है कि ग्रीन हाउस गैसों में बढ़ोतरी होने पर यह आवरण और भी सघन हो जाता है।
 ऐसे में यह आवरण सूर्य की अधिक किरणों को रोकने लगता है और फिर यहीं से शुरू हो जाते हैं ‘ग्लोबल वर्मिंग के दुष्प्रभाव।’ मनुष्य जनित गतिविधियों के कारण कार्बन डाईऑक्साइड, मीथेन, नाइट्रोजन ऑक्साइड इत्यादि ग्रीन हाउस गैसों में वृद्धि देखने को मिल रही है। विश्व जितनी तेजी से ग्लोबल वार्मिंग की चपेट में आ रहा है, उसका असर भारत पर भी उतनी ही तेजी से पड़ रहा है।


 यहां तक ग्लोबल वार्मिंग के चलते उत्तर भारत और दक्षिण भारत की जलवायु के बीच भी एक बड़ा अंतर देखने को मिलता है। यह बढ़ते तापमान का ही नतीजा है कि एक ही समय में भारत के किसी हिस्से को सूखे, तो किसी को बाढ़ की मार झेलनी पड़ती रही है। अगर इसी तेजी से धरती का तापमान बढ़ता रहा तो आने वाले कुछ सालों में मनुष्य के लिए धरती पर रहना ही नामुमकिन हो जाएगा। पर्यावरणविदों का कहना है कि मानव खुद अपने कर्मों से अपना विनाश कर रहा है।
 इनका इशारा प्रकृति से छेड़छाड़ और ग्लोबल वार्मिंग की ओर है। जब पेड़ कटेंगे और पर्यावरण से खिलवाड़ होगा, तो ग्लेशियर पिघलेंगे ही। लगातार पड़ती गर्मी के कारण पृथ्वी की सतह से वनस्पति कम हो रही है और ग्लेशियर पिघलने से समुद्री जल स्तर बढ़ रहा है। औद्योगिकीकरण की बाढ़ से वायुमंडल में कार्बन डाईऑक्साइड की मात्रा 30 प्रतिशत, मीथेन 100 प्रतिशत, नाइट्रस ऑक्साइड 15 प्रतिशत बढ़ी है। 


भूमि की उर्वरता में कमी से खाद्य संकट भी आएगा। ग्लेशियर पिघलने से पानी का संकट भी आएगा। अब समय आ चुका है कि तमाम सरकारें, ऊर्जा क्षेत्र और व्यापार जगत ग्लोबल वार्मिंग को लेकर गंभीर हो जाएं और इससे पैदा होने वाले खतरों से निपटने में अपनी भूमिका को समझें। जब तक व्यवहार और कार्यशैली में बदलाव नहीं आएगा, ग्लोबल वार्मिंग की समस्या बढ़ती ही जाएगी।

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