मुझसे अब कविता नहीं होती


रो-रोकर मेरी कलम मुझसे कहती
मुझसे अब कविता नहीं होती*
कैसे लिखूं...?
उस विधवा के श्रृंगार  को
हाथों की मेहंदी की पुकार को
टूटी हुई चूड़ियों की खनकार को
खामोश हो गई पायल की झंकार को
चंद रातों में उसके दिए हुए प्यार को
बसने से पहले उजड़ गए घर संसार को
मिलन के संजोए हसीन सपने हुए तार- तार को
चांद के उगते ही छाए अंधकार को
रो-रोकर मेरी कलम मुझसे कहती  
मुझसे अब कविता नहीं होती*

कैसे लिखूं...?
पिता के कंधों पर बेटे की अर्थी के भार को
अस्थि प्रवाह करते पिता के हृदय की चित्कार को
अग्नि देती बहन के आंसुओं की धार को
बहन की राखी के अंतहीन इंतजार को
शहनाई के बजते ही श्मशान सा सन्नाटे छाए घर द्वार को
रो रोकर मेरी कलम मुझसे कहती
मुझे अब कविता नहीं होती*

कैसे लिखूं..?
मानवता को शर्मसार करते नरसंहार को
कश्मीर घाटी में निर्दोषों पर होते अत्याचार को
पहलगाम की धरती पर बहती खून की धार को
कैसे लिखूं... कैसे लिखूं..?
रोकर मेरी कलम मुझसे कहती
मुझसे अब कविता नहीं होती।
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- डॉ.गीतांजलि नीरज अरोड़ा "गीत"
लेखिका, कवयित्री, नई दिल्ली।

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