इलमा अज़ीम
आदिवासी संस्कृति, परंपरा प्रकृति-पूजक के रूप में जल, जंगल, जमीन और पहाड़ से जुड़ी रही है। देश का संविधान भी उनके इस जुड़ाव को संरक्षण प्रदान करता है। उनका स्वभाव और संस्कृति कथित आधुनिक समाज के लोगों में कौतूहल पैदा करती है। आज देश में करीब 10 फीसद आबादी आदिवासी समुदाय की है, लेकिन फिर भी आधुनिक सामाजिक दौड़ में ये अन्य की तुलना में पिछड़े हुए है।
आज जब पूरा विश्व वायुमंडलीय बदलाव और ग्लोबल वार्मिंग जैसी समस्याओं से जूझ रहा है तब हमें आदिवासी समाज की जीवनशैली अपनी ओर खींचती है। प्रकृति से इनकी नजदीकी और मानव के मध्य एक बेहतर समन्वय को दर्शाता है। तकनीक और विज्ञान से लैस आज का आधुनिक समाज आदिवासियों की परंपराओं और जीवनशैली को उत्सुकता की निगाह से देखता है। उसके लिए इनका व्यवहार और संस्कृति अब अप्रासंगिक हो चुके हैं, लेकिन सही मायने में आदिवासियों की विशिष्ट जीवनशैली ही है जो हमें प्रकृति के साथ एक तारतम्य बनाकर आगे बढ़ने की प्रेरणा देती है। इनकी परंपराओं में छिपे ज्ञान को बाहर निकालने की आवश्यकता है।
आज समाज का हर वर्ग विकास की दौड़ में एक-दूसरे से आगे निकलने की होड़ में है। इसी बीच एक सुदूर गांव का आदिवासी भी चाहता है कि वह भी समाज के अन्य वर्गो की भांति आगे आए। अब इस प्रतिस्पर्धा के युग में सरकार भी इस समुदाय की विभिन्न स्तरों पर सहभागिता हेतु कार्य कर रही है। इनकी परंपराओं और संस्कृतियों के संरक्षण के साथ-साथ विकास की दौड़ में कैसे इनकी भी सहभागिता सुनिश्चित करे? कैसे इस समाज के युवाओं के लिए इनकी परंपराओं के अनुकूल विकास का माहौल तैयार करे? राज्य में लुप्तप्राय हो रही जनजातियों की विशिष्ट जीवनशैली और परंपराओं को संरक्षण प्रदान करने के लिए इसे सामान्य जीवन में भी व्यवहार में लाना होगा।
उनकी खेती की पारंपरिक विधा, जंगलों में औषधीय पौधों की पहचान, उनके उपयोग और जैविक खेती के कई तरीके आज भी अनूठे हैं। सरकार इनके विकास की नीति उनकी इन्हीं परंपराओं को ध्यान में रखकर तैयार करने का प्रयास कर रही है जिसमें पुराने बीजों का संरक्षण, मोटे अनाजों हेतु नीतियों का निर्माण, ताकि उनकी संस्कृति और परंपराओं का भी संरक्षण हो सके। जिससे आदिवासियों के विभिन्न स्तरों के अनुरूप उनके विकास का खाका तैयार किया जा सके। विश्व की इस महान लोक-संस्कृति को संरक्षित व संवर्धित करने के लिए एक सामूहिक प्रयास की आवश्यकता है।
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