घटती आर्थिक विकास दर
इलमा अजीम
राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय (एनएसओ) की जीडीपी विकास दर के अनुमान को देखें तो वह खतरे की घंटी से कम नहीं है। अर्थव्यवस्था के तीन क्षेत्रों के कुल 8 उप-क्षेत्रों में से कृषि और लोक प्रशासन को छोड़ कर शेष 6 क्षेत्रों में विकास दर में गिरावट आंकी गई है। विनिर्माण, सेवा, निर्माण, खनन, बिजली-गैस, होटल-परिवहन और औद्योगिक वृद्धि में वित्त वर्ष 2024 की तुलना में चालू वित्त वर्ष में गिरावट के पूरे आसार हैं। यह अनुमान भारतीय रिजर्व बैंक, विश्व बैंक, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष, एडीबी और एसएंडपी एजेंसी के अनुमानों से भी कम है। चालू वित्त वर्ष 2024-25 की विकास दर 6.4 फीसदी आंकी गई है, जो बीते चार साल में सबसे धीमी और निम्न स्तर पर रहेगी।
भारतीय स्टेट बैंक की एक रपट में तो यह दर घटकर 6.3 फीसदी हो गई है। कृषि में 1.4 फीसदी की तुलना में 3.8 फीसदी की बढ़ोतरी और लोक प्रशासन में 7.8 फीसदी के स्थान पर 9.1 फीसदी की वृद्धि हो सकती है। दरअसल नीतिकारों को यह चिंता करनी चाहिए कि भारत की वास्तविक मिश्रित सालाना विकास दर, बीते 10 सालों के दौरान, घटकर 5.9 फीसदी रह गई है। बीते 4 सालों में तो यह 4.8 फीसदी ही रह गई है। ऐसा देश ‘विकसित’ बनने का लक्ष्य कैसे हासिल कर सकता है। हमें इस मुगालते में नहीं रहना चाहिए कि हमारी विकास दर अमरीका, चीन, जापान सरीखे देशों की तुलना में ज्यादा है।
अमरीका की अर्थव्यवस्था हमसे 8 गुना अधिक है, जबकि आबादी 33 करोड़ के करीब है। चीन की अर्थव्यवस्था हमसे 5 गुना ज्यादा है और जापान में आबादी कम है और वह विश्व की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है। भारत को आत्मचिंतन करना चाहिए कि सरकार 7-8 फीसदी विकास दर के दावे करती रहती है और हकीकत बहुत कम है। दरअसल कोरोना महामारी के बाद यह भारतीय अर्थव्यवस्था की सबसे धीमी गति साबित हो सकती है। विकास दर लुढक़ने के बावजूद निजी उपभोग में उछाल आएगा, यह एक अच्छी खबर है, लेकिन फिक्स्ड पूंजी निर्माण में बढ़ोतरी 6.4 फीसदी ही होगी, जो वित्त वर्ष 2024 में 9 फीसदी थी।
निजी उपभोग व्यय और फिक्स्ड पूंजी निर्माण किसी भी अर्थव्यवस्था में क्रमश: 60 फीसदी और 30 फीसदी के योगदान के साथ बढ़ोतरी के इंजन होते हैं, लेकिन दुर्भाग्य है कि दोनों में गिरावट देखी जा रही है। सारांश यह है कि निवेश अर्थव्यवस्था को कई गुना बढ़ाने वाली ताकत के तौर पर काम नहीं कर रहा है। अर्थात निवेश पर्याप्त नहीं मिल पा रहा है। हालांकि भारत में कॉरपोरेट कर अन्य देशों की तुलना में कम है और उत्पादन से जुड़ी योजनाओं के तहत प्रोत्साहन दिए जाते हैं, फिर भी अपेक्षाकृत निवेश कम आ रहा है।
अर्थव्यवस्था में संभावित गिरावट के प्रमुख कारण ये बताए जा रहे हैं-वैश्विक मंदी का असर, महंगाई से राहत नहीं, उपभोक्ता व्यय में कमी, देश के व्यापार घाटे में लगातार बढ़ोतरी और ऊंची ब्याज दरों का मांग पर प्रभाव। क्या इस घटती विकास दर के लिए रिजर्व बैंक, उसकी मौद्रिक नीति और गैर-लचीली ब्याज दरों को दोषी ठहराया जा सकता है? कुछ हद तक यह सवाल सही है, क्योंकि दिल्ली में हुई बैठक के दौरान यह आकलन सामने आया था। भारत में मुद्रास्फीति भी बहुत अहम कारण है। इन दोनों ही स्थितियों में सरकार को कारगर और आम आदमी-समर्थक कदम उठाने चाहिए।
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