विकास के भ्रम में पर्यावरणीय प्रलय को आमंत्रण
- अविजित पाठक
इन दिनों, खुद की पीठ ठोंकने के लायक बात हैै कि यह लेखक कार खरीदने के प्रलोभन से बचा हुआ है। वास्तव में, जिस शख्स को पैदल चलना बहुत पसंद हो, उसे यह सोचकर अच्छा लगता है कि इस नैसर्गिक कार्य से कोई कार्बन उत्सर्जन नहीं होता, और वह न्यूनतम ही सही, जलवायु आपातकाल के खतरे से निपटने में अपना योगदान कर रहा है। हालांकि, पैदल यात्री को आजकल एक बाधा के रूप में देखा जाता है। आखिरकार ऐसा लगता है, हमारे राजमार्ग, सड़कें/गलियां सिर्फ कारों, मोटरबाइक और अन्य वाहनों के लिए ही हैं।
कोई आश्चर्य नहीं कि शांति से चलना या बिना किसी चिंता के सड़क पार करना लगातार मुश्किल होता जा रहा है। विद्रूपता यह कि अगर आप कार्बन उत्सर्जन को कम करने में एक भूमिका निभाना चाहते हैं- भले ही वह कितनी भी न्यूनतम हो- तो आपकी ज़रूरत नहीं है। भले ही वैज्ञानिक और पर्यावरणविद हमें बार-बार याद दिला रहे हैं कि जीवाश्म ईंधन निरंतर जलने के कारण दुनिया जलवायु आपातकाल की स्थिति में पहुंच चुकी है, फिर भी हम पेड़ काटने, मेगा एक्सप्रेसवे बनाने, गति एवं गतिशीलता का महिमामंडन करने, कार खरीदने (अधिक से अधिक बड़ी) और कस्बों/शहरों को इस तरह से डिजाइन करने से कभी नहीं थकते कि पैदल चलना या साइकिल चलाना लगभग असंभव हो जाए।
दिल्ली सांख्यिकी पुस्तिका 2023 के आंकड़े भयावह हैं। राष्ट्रीय राजधानी में पंजीकृत वाहनों की कुल संख्या 1.2 करोड़ थी, जिनमें से 33.8 लाख निजी वाहन थे। यह खेल जारी है, भले ही वाहनों से निकलने वाला उत्सर्जन दिल्ली के प्रदूषण का लगभग 38 प्रतिशत है। यह पूरी तरह आत्मघाती है। उदाहरण के लिए, बेंगलुरु के भाग्य की कल्पना करें – एक शांत शहर का शोरगुल भरे क्षेत्र में बदल जाना, जो अब अपने कुख्यात ट्रैफिक जाम के लिए जाना जाता है। जैसा कि एक रिपोर्ट बताती है, 23 लाख से अधिक निजी कारों वाले इस शहर में वाहन से महज़ 10 किमी की दूरी तय करने में औसतन 30 मिनट खप जाते हैं!
ऐसा लगता है कि हम एक दुष्चक्र में फंस गए हैं : अधिक कारें, अधिक ट्रैफिक जाम, अधिक फ्लाईओवर, अधिक एक्सप्रेसवे, अधिक प्रदूषण। फिर भी, तकनीक-पूंजीपति, ठेकेदार और राजनेता लॉबी ने जल्द ही चालू किए जाने वाले एक अन्य एक्सप्रेसवे का महिमामंडन करना शुरू कर दिया है। जी हां, 264 किलोमीटर लंबा यह दिल्ली-देहरादून एक्सप्रेसवे आपको इन दोनों शहरों के बीच सिर्फ 2.5 घंटे में यात्रा करने लायक बनाएगा!
और हमेशा की तरह, हम किसी फैंसी कार का नवीनतम मॉडल खरीदकर, इस आकर्षक एक्सप्रेसवे पर ड्राइव करने को ललचाएंगे, जिसका रोमांच अति-आधुनिक समय में धर्म-सा बन गया है- तेज और तेज गति। और हम आसानी से यह भूल रहे हैं कि इस एक्सप्रेसवे को बनाने में, खुद भारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण के आंकड़ों के मुताबिक 7,555 पेड़ पहले ही गिराए जा चुके हैं! पेड़ों के दर्द और परिणाम में बनने वाली मानवीय त्रासदियों की किसे परवाह?
इसी तरह, विकास की आधुनिकतावादी भेड़चाल में निहित गति/गतिशीलता ने भारत में घरेलू हवाई यात्री यातायात में जबरदस्त वृद्धि की है, 2024 में हवाई यात्रायों की संख्या 15 करोड़ पार करने की उम्मीद है। ‘प्रगति’ की इन गाथाओं के बीच, क्या हमने यह सोचने-समझने की जहमत उठाई कि परिवहन के साधनों में हवाई यात्रा सबसे ज्यादा कार्बन-उत्सर्जन करने वाली गतिविधि है?
ऐसा लगता है कि हम इसकी कीमत चुकाने को तैयार हैं। मेट्रो शहरों में हम प्रदूषित सांसें ले रहे हैं, पार्किंग की जगह को लेकर अपने पड़ोसियों से झगड़ते हैं और गति एवं शोर के निरंतर संपर्क में रहने के कारण उच्च रक्तचाप और मधुमेह से पीड़ित हो रहे हैं।और मुझे लगता है कि गति और गतिशीलता के प्रति इस आसक्ति का विरोध किया जाना चाहिए जिसका प्रतीक हमारे एक्सप्रेसवे और हवाई अड्डे हैं। यह लेखक ‘धीमेपन’ की लय का आनंद लेता है।
गति के प्रति हमारे आकर्षण का एक अन्य परिणाम है- उपभोक्तावादी पंथ। ‘एक खरीदो, एक मुफ़्त पाओ’- बाजार द्वारा संचालित यह मंत्र हमें अधिक खरीदने और उपभोग करने के लिए उकसाता है, चाहे यह नवीनतम इलेक्ट्रॉनिक सामान हो, कोई फैंसी परिधान, आलू चिप्स या डिटर्जेंट पाउडर का पैकेट, या फिर नया स्मार्टफोन। उपभोगवाद का यह सामान्यीकरण पर्यावरण को और प्रदूषित करता है। इन उत्पादों को बनाने के लिए विशालकाय कारखाने और ढुलाई परिवहन के परिचालन के वास्ते भारी मात्रा में ऊर्जा की आवश्यकता होती है। जिससे कार्बन उत्सर्जन बढ़ता है। इसी तरह, कपड़ा उत्पादन में हर साल लाखों टन गूदड़ का कचरा पैदा होता है, और बहुत कम कपड़े ही रिसाइकिल हो पाते हैं। इसके अलावा, जैसे-जैसे ई-कॉमर्स ने पैक किए सामानों पर हमारी निर्भरता बढ़ाई है, प्लास्टिक में लिपटे लाखों पैकेज भारी मात्रा में कचरा पैदा करते हैं। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि प्लास्टिक जीवित प्राणियों को हानिकारक रसायनों के संपर्क में लाता है जो कैंसर और अन्य स्वास्थ्य समस्याओं का कारण बन सकते हैं। इसी प्रकार, इलेक्ट्रॉनिक्स गैजेट्स में दुर्लभ धातुएं होती हैं जो अक्सर लैंडफिल में निपटाई जाती हैं। इसके अलावा, प्लास्टिक का कचरा समुद्र में पहुंचकर समुद्री जीव प्रजातियों को गंभीर नुकसान पहुंचा रहा है।
फिर भी, पूंजीवाद का सिद्धांत हमें अधिक खरीदने, और अधिक उपभोग करने और इस तरह पृथ्वी के पारिस्थितिकी तंत्र को नुकसान पहुंचाने के लिए उकसाता रहता है। जब आप किसी शॉपिंग मॉल में जाते हैं, तो विशेष ‘ऑफ़र और छूट’ के संदेश प्राप्त होते हैं और खरीदारी एवं खरीद को सामूहिक मनोरंजन का रूप दे दिया जाता है, तब आपको अहसास होता है कि उपभोक्तावाद हमारे वक्त का सबसे प्रिय धर्म है। फिर भी, यह लेखक एक ‘न्यूनतमवादी’ बने रहना चाहता है। उसे पता है कि उसका ‘धीमा जीवन’ या ‘न्यूनतमवाद’ हमारे आस-पास जो कुछ भी हो रहा है उसका कोई उत्तर नहीं है- जलवायु आपातकाल की साक्षात दिखाई दे रही उपस्थिति और उसके तमाम विनाशकारी परिणाम : ग्रीनहाउस गैसों के निरंतर उत्सर्जन से औसत वैश्विक तापमान में 1.1-1.2 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि, ग्लेशियरों का पिघलना, तीव्र से तीव्रतर होती गर्मी, बार-बार आने वाली भयावह बाढ़ें, चक्रवात, जंगलों की आग और मानव जीवन की हानि।
हमें एक बड़े पैमाने पर संरचनात्मक परिवर्तन के लिए प्रयास करने की आवश्यकता है जिसके लिए विश्व के नेताओं, नीति निर्माताओं व कॉर्पोरेट अभिजात्य वर्ग को ऐतिहासिक पेरिस समझौते को गंभीरता से लेना होगा और वैश्विक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में सतत कमी लाने के लिए विकास और आर्थिक संवृद्धि की नीतियों पर पुनर्विचार करना होगा। लेकिन फिर, कोई बड़ी क्रांति तब तक संभव नहीं है जब तक हम -आप और मैं- कार्बन उत्सर्जन को कम करने के लिए अपनी जीवन शैली में बदलाव लाने का प्रयास नहीं करते, सरकारों पर दबाव नहीं डालते और हमारी पृथ्वी को आपदा से बचाने के लिए आंदोलन शुरू नहीं करते।
(लेखक समाजशास्त्री हैं)
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