बाजारी ताकतों पर नियंत्रण जरुरी
- डॉ. राजेन्द्र प्रसाद शर्मा
बुवाई से पहले या बुवाई के समय फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य की घोषणा इस मायने में महत्वपूर्ण हो जाती है कि किसानों को कौन सी फसल लेना लाभकारी रहेगा इस पर सोच विचार कर निर्णय करने का अवसर मिल जाता है। पिछले कुछ सालों से केन्द्र सरकार द्वारा खरीफ हो या रबी लगभग इनके बुवाई के समय ही न्यूनतम समर्थन मूल्य की घोषणा कर दी जाती है। इसे सरकार की सकारात्मक पहल भी कहा जा सकता है। केन्द्र सरकार ने रबी सीजन की गेहूं, सरसों सहित छह प्रमुख फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य की घोषणा की है।
एमएसपी की घोषणा करते समय यह भी दावा किया गया है कि इन सभी छहों फसलों के एमएसपी का निर्धारण लागत से अधिक किया गया है जिससे किसानों के लिए यह फसलें लाभकारी सिद्ध हो सके। दावों की माने तो लागत की तुलना में सर्वाधिक 105 प्रतिशत अधिक एमएसपी गेहूं की घोषित की गई है, सबसे कम कुसुम की लागत से 50 प्रतिशत अधिक है तो चना और जौ की लागत से 60 फीसदी अधिक घोषित की गई है। सरसों की लागत से 98 फीसदी तो मसूर की 89 प्रतिशत अधिक राशि तय की गई है। निष्कर्ष रुप से यह कहा जा सकता है कि लागत की तुलना में सभी छह फसलों की एमएसपी दरों में उल्लेखनीय बढ़ोतरी की गई है। एमएसपी की घोषणा करते समय सरकार ने लागत में खाद-बीज, कीटनाशक, सिंचाई पर व्यय के साथ ही मानव श्रम का भी समावेश किया गया है। ऐसे में लागत से अधिक राशि मिलना किसानों के लिए लाभकारी हो सकता है।
देश में 1966-67 में सबसे पहले गेहूं की सरकारी खरीद के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य की घोषणा की गई थी। आज से लगभग 60 साल पहले तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने एक अगस्त 1964 को एलके झा की अध्यक्षता में इसके लिए कमेटी घटित की थी। गेहूं की समर्थन मूल्य पर खरीद व्यवस्था का एक विपरीत प्रभाव सामने आने पर कि किसान अन्य फसलों की जगह गेहूं की फसल पर ही केन्द्रित होने लगे तो ऐसी स्थिति में सरकार ने अन्य प्रमुख फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य के दायरें में लाया गया। कृषि मूल्य एवं लागत आयोग की सिफारिश पर कृषि जिंसों के न्यूनतम समर्थन मूल्य की घोषणा की जाती है। देश में गेहूं, धान आदि 7 अनाज फसलें, 5 दलहनी, 7 तिलहनी, 4 नकदी फसलों के समर्थन मूल्य की घोषणा की जाती है। नकदी फसलों में गन्ना के सरकारी खरीद मूल्य की गन्ना आयोग द्वारा की जाती है तो गन्ने की खरीद भी गन्ना मिलों द्वारा की जाती है। इसी तरह से कपास की खरीद सीसीआई यानी कि कॉटन कारपोरेशन ऑफ इण्डिया द्वारा की जाती है।
केन्द्र सरकार द्वारा प्रमुखतः राज्यों में सहकारी संस्थाओं के नेटवर्क के माध्यम से एमएसपी की खरीद की जाती है। इसमें कोई दो राय नहीं कि देश में सहकारी संस्थाओं का विस्तृत और सीधे काश्तकारों की पहुंच का नेटवर्क है। अब ऑनलाइन रजिस्ट्रेशन और फिर खरीद के बाद ऑनलाइन भुगतान व्यवस्था से पारदर्शिता आई है। पर सवाल अभी वहीं है कि जब तक बाजार में खासतौर से मण्डियों में एमएसपी फसलों के भाव घोषित एमएसपी दरों के समकक्ष नहीं आते तब तक खरीद जारी रहने से ही काश्तकारों को सही मायने में इस व्यवस्था का फायदा मिल सकता है। दुर्भाग्य की बात यह है कि पारदर्शी व्यवस्था में भी बिचौलियों ने सेंध लगा ली है और लाख प्रयासों के बावजूद छोटे किसानों को सब तो नहीं पर कुछ काश्तकारों को व्यवस्था का लाभ नहीं मिल पाता। इसमें व्यवस्था का दोष इस मायने में हैं कि किसान को अपनी तात्कालीक व आवश्यक जरुरतों को पूरा करने के लिए साहूकार पर निर्भर रहना पड़ता है, ऐसे में काश्तकार अपनी फसल काश्तकार के नाम कर उससे अग्रिम राषि ले लेता है और बदले में काश्तकार के दस्तावेज से बिचौलियें लाभ उठा लेते हैं।
यह तो साफ है कि गेहूं और धान की खरीद सरकार द्वारा व्यापक स्तर पर की जाती रही है और इसका प्रमुख कारण सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत वितरण व्यवस्था के सुचारु संचालन और बाजार पर नियंत्रण रखना रहा है। अन्य फसलों का जहां तक सवाल है देश के अधिकांश प्रदेशों में खाद्यान्नों की खरीद एफसीआई द्वारा राज्यों के मार्केटिंग फैडरेशनों के माध्यम से सहकारी संस्थाओं द्वारा व तिलहनों और दलहनों की खरीद नैफड द्वारा भी इसी व्यवस्था के तहत किया जाता रहा है। एक समय था जब न्यूनतम खरीद आरंभ होते ही मण्डी में भी भावों में तेजी आने लगती थी। पर अब ऐसा नहीं हो रहा है इसके कारण क्या है, इस पर विचार करना।
दरअसल बिचौलियों ने एमएसपी खरीद व्यवस्था में सैंध लगा दी है। किसान से ही खरीद और ऑनलाइन व्यवस्था के बावजूद इस व्यवस्था का लाभ बिचौलिएं अधिक उठाने लगे हैं। सवाल यह है कि केन्द्र व राज्य सरकारें एमएसपी व्यवस्था को फूलप्रुफ बनाना सुनिश्चित कर दे और सरकार द्वारा घोषित एमएसपी से मण्डियों में भाव नीचे जाते ही तत्काल खरीद आंरभ हो जाएं तो निश्चित रुप से अन्नदाता को इस व्यवस्था का पूरा पूरा लाभ मिल सकता है। इसके साथ ही इस व्यवस्था में जिस तरह से सैंध लगाई गई है उसे रोकने के भी ठोस प्रयास किए जाने आवश्यक है। कहीं ना कहीं एक बार फिर से बाजार व्यवस्था का भी अध्ययन करना होगा। क्यों खरीद बंद होने के कुछ समय बाद ही जिंसों के भाव बढ़ने लगते हैं।
हाल ही में गेहूं के भावों में बढ़ोतरी और हर साल एक समय विशेष पर आलू, प्याज, टमाटर के भाव का बढ़ जाना कहीं ना कहीं यह बताता है कि कमोबेस बाजार ताकतें अधिक शक्तिशाली है और वे ही डोमिनेट करती है। इसलिए एक और जहां एमएसपी की खरीद व्यवस्था में सुधार व किसानों को ही वास्तविक लाभ मिले इसके प्रयास करने की आवश्यकता है उसी तरह से बाजार की ताकतों पर भी नजर रखना जरुरी हो जाता है ताकि एक और तो काश्तकार को ठगा महसूस करने से बचाया जा सके और आम नागरिक भी ठगा हुआ महसूस ना कर सके। कहीं ना कहीं बाजार पर सरकार के नियंत्रण की आवश्यकता है नाकि बाजारु ताकतों के हाथ में छोड़ने की। ऐसा होने पर ही सही मायने में एमएसपी व्यवस्था का लाभ मिल सकेगा।
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