मन भर खाए थाली में, जूठा न जाए नाली में

सपना सी.पी. साहू 'स्वप्निल'

मैंने ग्लोबल हंगर इंडेक्स में भारत को 105 वें पायदान पर देखा। तो जैसा कि मैं लगभग पूरे भारत में विभिन्न शहरों, गांवों का भ्रमण कर चुकी हूं। मैं कई ऐसे लोगों को जानती हूं जो जरूरतमंदों को सुबह-शाम भोजन करवाते है। तो कई समाजसेवा करते हुए, समूह बनाकर अन्न-जल की अच्छी व्यवस्थाएं करवाते है। ऐसे में मुझे लगता है कि ऐसी गलत जानकारी भारत के लिए कैसे, कहां, कब, कौन पहुंचा रहा है। भारत के लिए भ्रामक आंकडे़ कौन देता है? इन लोगों को भूखों की संख्या मिलती कैसे है यह भी विचारणीय प्रश्न है। 

जो भारत देश खेती प्रधान है। यहां पहचान वालो के खेतों से निकलों तो आज भी वे आपके हाथ में साग-भाजी, तो फल आदि जरूर थमा देते है। जहां दूध, दही, घी की उपलब्धता बहुत सरल है। मैंने अपने बड़ो से सुना ही नहीं बल्कि देखा है कि हमारे देश में लोग भूखे उठते है पर कभी भूखे सोते नहीं। सनातनियों के तो 16 संस्कारों में खान-पान का विशेष स्थान है। जहां भारत के प्रत्येक बड़े मंदिर में अन्नक्षेत्र चलते है। जहां के प्रमुख गुरुद्वारों में सुबह शाम लंगर चखाए जाते है। जहां 60 प्रतिशत जनता को मुफ्त राशन बंट रहा है। सरकारी स्कूलों में मीड-डे भोजन मिलता है। जितने वृद्धाश्रम, अनाथाश्रम, बाल गृह चलते है वहां भोजन खिलाने के लिए वेटिंग चलती है। जहां घर-घर में अतिथि सत्कार में मेहमान को बिना कुछ खाए, पीए वापस नहीं भेजा जाता और जहां लगभग अस्सी प्रतिशत सनातनी घरों में अतिरिक्त गाय, कुत्ते, पंछियों की रोटी बनती है। हमारे यहां तो जानवरों तक के शेल्टर होम चलते है। शादियों में, उत्सवों में ढेरों पकवान बनते हो। हमारे यहां तो जहां ट्रेनिंग प्रोग्राम, पुरस्कार वितरण, पुस्तक विमोचन, उद्बोधन, गोष्ठी, परिचर्चा, छोटी- छोटी किट्टी, जन्मदिन, बीसी तक का समापन स्वल्पाहार या भोजन खिलाने से होता हो। जहां मंदिर निर्माण और संत, महात्माओं के प्रवचन होते है तो सात-सात दिन आयोजक, लोगों के लिए भोजन पानी की व्यवस्था करवाते हुए नगर भोज करवाते हो। जहां आए दिन व्रत उद्यापन, जीमण चलते ही रहते हो। पूजा पंडालों में दोने भर-भरकर प्रसादं होता है। हर पूजा पाठ के बाद बडे़-बडे़ भंडारे आयोजित किए जाते हो, जहां मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे, चर्च के बाहर मांगने वालों को भोजन के पैकेट बांटे जाते हो, जहां हजारों एनजीओ भोजन पकाकर खिलाते हो‌। 

भारत के लोग स्वल्पाहार, नमकीनों की दुकानों पर खुद स्वादिष्ट वस्तुएं खाते है और एक अलग सी थैली में अपने घर पर पैक कराकर ले जाते है। हमारे यहां चाहे कुछ मिले या न मिले पर नाश्ते पानी के ठेले जगह-जगह मिलते है। हमारे यहां तो कितनी  देशी और यहां तक विदेशी फूड चेन चल रही है। छोटे से बडे़ टिफिन सेंटर चल रहे है। भारत की चाय की चेन, पोहे की चेन, समोसे की चेन देश में ही नहीं विदेशों तक में प्रसिद्ध है। पानी पताशे, चाट के ठेले तो पूरे भारत के हर शहर में सौ सवा सौ मीटर की दूरी पर मिल जाते है। भोजन पकाकर खिलाना बड़ा व्यापार व्यवसाय है। जो भारतीय अर्थव्यवस्था तक को मजबूती प्रदान कर रहा है। भोजन ठेलों, रेस्टोरेंट, घुमटियों से लेकर फाइव स्टार होटलों तक आसानी से उपलब्ध है। 

यहां दो प्रांतों, अलग शहरों, गांवों के लोग आपस में बात करते है तो पूछते है आपके उधर खाने में क्या विशेष मिलता है। जहां पूरे विश्व में सबसे ज्यादा वैराइटी के भोजन मिलते है। यहां हर महिला का एक टाॅपिक खाने पीने से जुड़ा रहता है। पड़ोस  हालचाल में पूछती है "भाभी/ दीदी आज आपने क्या बनाया, कैसे बनाया, रेसिपी मुझे भी सिखाओं।" यहां पर इतनी महिलाएं, शेफ सोशल मीडिया पर रेसिपी ब्लाग चलाते है।

और तो और सबसे बड़ी बात समझने की यहां बोला जाता है "मन भर खाए थाली में, झूठा न जाए नाली में" ऐसे ही मालवा प्रांत में एक कहावत है "मालव माटी गहन गंभीर डग-डग रोटी, पग-पग नीर" उस मेरे देश में लोगों में भूख का इंडेक्स इतना गिरा हुआ है। सुनकर ही हास्य व्यंग्य पैदा होता है। 

एक ओर बात भारत में लोग अतिरिक्त खाने के कारण डायटिंग भी करने लगे है जबकि अगर इतनी भूखमरी है ही तो डायटिंग प्रोग्राम, मोटापा सर्जरी, जीम, योग-व्यायाम केंद्र ये सब क्यों बढ़ रहे है। मैं तो कहूंगी यह हो ही नहीं सकता। ऐसे सर्वे पूर्ण रूप से मनगढ़त है और मैं और जो भी देश के समझदार लोग है वह ऐसे आंकड़ों की निंदा करते है। यह प्रायोजित है और देश के विपक्ष के लिए बस एक जूठा मुद्दा बनने वाला है। 

वैसे अब ऐसे इंडेक्स पर हमें इसलिए भी भरोसा नहीं करना चाहिए क्योंकि सरकार ने इतने काम किए, योजनाएं लाते है। जहां हम विश्व की सबसे बड़ी आबादी वाले देश है और इतनी भूखमरी अगर है तो अभी तक जनसंख्या नियंत्रण कानून क्यों घोषित नहीं किया जा रहा? फिर तो बिना देर किए जनसंख्या नियंत्रण कानून लागू कर देना चाहिए। व्यर्थ की मुफ्त सुविधाएं भी बंद हो जानी चाहिए और वह पैसा सिर्फ भूख नियंत्रण करने और भोजन बांटकर कुपोषण के जाल को तोड़ने में लगना चाहिए। यही सही रहेगा आप सब भी सोचिए। 

न मानने का दूसरा कारण तो पहले भी कई पड़ोसी देशों के हैप्पी इंडेक्स भारत से बहुत अच्छे थे। पर बांग्लादेश, श्रीलंका, पाकिस्तान, नेपाल के हाल हमने प्रत्यक्ष रूप से देख लिए है। बांग्लादेश तो ताजा-ताजा उदाहरण है। ऐसे में ऐसे इंडेक्स पर ध्यान न देते हुए हर कोई अपने-अपने स्तर पर सड़कों पर मांगने वाले व्यक्ति को भीख या मदद में पैसे देना बिल्कुल बंद कर दें और उनके लिए अतिरिक्त नाश्ता, भोजन, पानी की व्यवस्था कर दें। तो देखिएगा, यह प्रयोग दो बातों में कारगार सिद्ध होगा कि भीख के पैसों का लोग दुरुपयोग तो कर ही नहीं पाएंगे और दूसरा, मांगने वालों पर भी लगाम लगेगी। आखिर कोई कितना खाने की चीजे लेगा। वे खुद मना करने लगेंगे कि नहीं खाना नहीं चाहिए। क्योंकि हमारे देश में खिलाने वाले उपकारी आज भी मांगने वालों से ज्यादा है। अंत में याद रखिए, ऐसे पूर्व प्रायोजित हंगर इंडेक्स कहां से, कौन से, किस जरिए से लिए जा रहे है हम तो अनभिज्ञ ही है। 



हमें हमारे परोपकारी, अतिथि देवो भवः वाले देश के लिए ऐसे हंगर इंडेक्स जो प्रत्यक्ष में सही प्रतीत नहीं होते जो अफवाह वाले साफ समझ आते है, जो पूर्व प्रायोजित होते है, उस पर ध्यान नहीं देना ही सही है क्योंकि कोई भी दूसरे देश हमारे देश के लोग क्या खा पी रहे है, कितना और कैसे खा रहे है यह बताने में पूर्ण रूप से समर्थ है ही नहीं। एक ओर बात  जितने भी सम्पन्न जन है वे अपने-अपने हिस्से के परोपकार में लगे रहे। हम भारतीय भूखे पेट उठते है, पर भूखे पेट कभी सोते नहीं, हम सदा कहते थे, कहते है और कहते रहेंगे कि दाने-दाने पर  लिखा है खाने वाले का नाम और हमारे खेती प्रधान देश को विश्वस्तर पर ऐसे भूख के झूठे आंकड़े देकर मत करो बदनाम। 

इंदौर (म.प्र.)

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