जन प्रतिनिधियों की बदलती विचारधाराएं
- प्रो. एनएल मिश्र
नेता जनता के प्रतिनिधि होते हैं।एक नेता जीवन में विभिन्न कुर्बानियों को देते हुए आगे बढ़ता है तथा नेता बनने के लिए नेतृत्व के गुणों को आत्मसात करता है।इतिहास पर दृष्टि डालें तो पाएंगे कि ऐतिहासिक नेता बड़े संघर्ष के बाद अपना स्थान बना सके हैं।जब देश गुलामी की जंजीर में जकड़ा हुआ था।चारों तरफ अन्याय,लूट खसोट मचा था।लोग कष्ट में जीवन गुजार रहे थे,देश के युवा बुजुर्ग सभी के अंदर आजादी का जज्बा था।कोई शिक्षक,कोई अधिकारी तो कोई वकील था।जो बेरोजगार थे वे भी किसी से पीछे नहीं थे।देश सेवा और राष्ट्र सेवा सर्वोपरि था।उन लोगों में देश और देश के लोगों की चिंता थी।घर परिवार समाज की परवाह किए बगैर स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े।उन लोगों ने अपने करियर ,मान प्रतिष्ठा और स्टेटस की कोई चिंता नहीं की।स्थितियां ऐसी थी कि देश उनको पुकार रहा था और उन्होंने अपने आप को राष्ट्र रक्षा में झोंक दिया।
लंबे संघर्ष के बाद आजादी मिली। आजाद भारत को अपने तरीके से आगे ले जाना था।नेताओं के गुट थे पर सभी नेता अपने को न देख देश को देख रहे थे। उन नेताओं में सच्ची देश भक्ति थी। इसीलिए देश में उनकी इज्जत और प्रतिष्ठा थी।बच्चे गांधी नेहरूचंद्रशेखर आजाद, मंगल पांडे, बिस्मिल्ला खान, सुभाष चंद्र बोस,इत्यादि नेताओं को अपना आदर्श मानते थे।जिनके अंदर देश भावना का जज्बा था देश सेवा की चाहत थी वे उन्ही की तरह नेता बनना चाहते थे और लोग बने भी। विचारधाराएं प्रमुख थी।अपनी विचार धारा को लेकर वे जीवन पर्यंत चलते थे।लाभ और हानि का तराजू उनके पास नही था।
समय बदला। परिस्थितियां बदली। हम मांगने की जगह धीरे धीरे स्वावलंबी होने लगे। आत्मनिर्भरता की दिशा में हमारे पांव आगे बढ़ने लगे।तत्समय के नेताओं के निर्माण कार्य आज भी देखे जा सकते हैं। कितनी बारीकी से वे काम हुआ करते थे कि आज भी उनमें कोई खामी नही मिलती।हम सुई निर्माण से परमाणु संपन्न राष्ट्र तक का सफर तय कर लिए। किंतु आज नेताओं का सामाजिक प्रत्यक्षण इतना नीचे गिर गया कि कोई व्यक्ति अपने बच्चों को नेता नही बनाना चाहता। कोई व्यक्ति अपने बच्चों का नाम आधुनिक नेताओं के नाम पर रखना नही चाहता। कुछ दल आज भी एक तरीके से विद्यार्थियों को राष्ट्र सेवा के तरफ ले जा रहे हैं पर उनमें वह दृष्टिकोण विकसित नही कर पा रहे हैं जो राष्ट्र सेवा के लिए होना चाहिए। जो विद्यार्थी इस दिशा में आगे बढ़ रहे हैं उनमें छोटे छोटे स्वार्थ भोग लिप्सा और भविष्य के बड़े लाभ दिख रहे हैं।
छात्रों के बीच से नए नेतृत्व उभरते थे। आज कोई भी गंभीर विद्यार्थी नेता नही बनना चाहता। क्यों? क्योंकि आधुनिक नेता के लिए जो आवश्यक अर्हता उनमें होनी चाहिए वह सीधे साधे रास्ते से आने वाली नही है।नेता बनने के लिए अनुयायियों की जरूरत पड़ती है। अनुयायी उनके पीछे जा सकते हैं जिनके पास अनाप शनाप पैसा हो या उनके पीछे जा सकते हैं जिनमे संवेदनशील मुद्दों पर लंबे समय तक संघर्ष करने की क्षमता हो, इस तरह अब नेता कोई बनना नही चाहता। आजकल नेता बनने के लिए दो चार हत्याएं, दस बीस मुकदमे दो चार रेप, अवैध धंधे, अवैध कब्जे, चार पांच रायफल धारी अंगरक्षक, अवैध खनन, बड़े बड़े मंत्रियों का आशीर्वाद, कमीशनखोरी, अवैध वसूली इत्यादि विशेषण जब तक न जुड़े तब तक नेता बनने की राह बहुत कठिन है। आप जीवन भर सत्य तरीके से नेता का कार्य करते रहिए आपको कोई पूछने वाला नहीं। हां आप किसी भी रास्ते से अपना नाम समाज में उछलवाने में सक्षम हों तो भी आपकी संभावना बनती है। लेकिन आप विद्वान हैं आप विवेकी हैं, आप समाज के हितैषी हैं आप के अंदर राष्ट्र प्रेम का जज्बा है आपको कोई पूछने वाला नहीं।यदि आप मूल्यों की राजनीति की बातें करते हों तो आप सबसे बड़े बेवकूफ हो।
आज जन प्रतिनिधियों ने देश को धर्म, संप्रदाय, जाति और वर्ग में बांट दिया है। पहले देश की एकता और अखंडता पर बल दिया जाता था।क्षेत्रवाद, भाषावाद और इस तरह के तमाम वादों को शनै शनै समाप्त करने की कोशिश करते हुए देश के एकत्व की बात प्रमुख थी पर आज खंड खंड में बांटने के हुनर से ही नेताओं का अभ्युदय हो रहा है।
आप स्वयं देख सकते हैं कि आदिवासियों ने अपने नेता मान लिए, मुसलमानों ने अपने नेता बना लिए, जैनों ने अपने नेता बना लिए, बौद्धों ने अपने नेता पैदा कर लिए, तो ब्राह्मण अपने नेता तैयार करने में लगे हैं, ठाकुरों ने अपने नेता बना लिए, तो यादवों ने अपने नेता गढ़ लिए। निषादों ने अपने नेता बना लिए, मुसहरों ने अपना बना लिया, जाटों ने अपने क्षत्रप बना लिए, तो सिखों ने अपना नेता बना लिया। पटेलो के अपने नेता हो गए।यहां तक कि अब देवी देवता भी जाति के गिरफ्त में आ गए।प्रभु श्रीराम बंटने की लाईन में खड़े हैं,तो श्रीकृष्ण यादवों के देवता हो गए।ब्राह्मणों ने तो पहले ही परशुराम का आरक्षण करा रखा है तो अनुसूचित जाति के लिए बुद्ध देवता हो गए हैं। राजभर समाज ने राजा सुहेलदेव को अपने पाले में कर रखा है। यह कोई बुरी बात नहीं है। देवी देवता किसी एक के नही होते वे सभी के होते हैं। उन्होंने समाज में मानवता और धर्म को स्थापित किया। उन्होंने आपस में जोड़ने की बात पर बल दिया न कि अपने को संकुचित दायरे में रखने का ज्ञान दिया।पर नेताओं की चाहत और अपने साम्राज्य के स्थायित्व के लिए इन्होंने समाज को खंड खंड में बांट दिया।और यही बांटने की कला उनके नेता बनने की नींव डालता है। आज कितने ऐसे नेता हैं जो एक छोटे समाज को बड़े समाज के दायरे से अलग कर दिया है और अपने राजनीति की गोटियां बिछा रहे हैं।
आप देख सकते हैं कि लंबे संघर्ष के बाद बनी एक विचारधारा के आधार पर राजनीतिक दल बनते हैं और उस विचारधारा को नेता जीते रहे हैं पर आज बहुत दलों के पास न तो कोई विचारधारा है न ही कोई दूरदृष्टि।सिर्फ और सिर्फ लोगों को भड़काकर अपने स्वार्थ पूर्ति के लिए एक अलग समूह बना लेना उनका उद्देश्य रह गया है और देश की राजनीति और तरक्की को कमजोर करने के लिए समाज को बांटने का कार्य ही प्रमुख रह गया है। एक सांसद वाली पार्टी भी बार्गेनिंग का काम करती है। जिसके पास कोई सांसद नही वह भी आंख तरेरते दिखते हैं। अधिकांश नेताओं की कोई विचारधारा ही नहीं रही। उनका एक विचार है अपने समाज को मूर्ख बनाओ और स्वयं नेता बनकर सुख सुविधा भोगो। मैं कितने लोगों का नाम गिनाऊं जिन्होंने अपनी मौलिक विचारधारा को तिलांजलि देकर केवल सुख सुविधा लेने के लिए हर पल वे दल बदलते दिखाई देंगे।
एक मुख्यमंत्री किसी प्रकरण में जेल जाता है। उसकी सबसे बड़ी दुविधा यह होती है कि वह किसको मुख्यमंत्री बनाए। हालांकि यह पार्टी में लोकतंत्र का अभाव माना जाता है। यदि पार्टी में लोकतंत्र है तो वह ऐसे हालात में अपना मुख्यमंत्री चुन सकता है लेकिन यदि वन मैन शो है तो किसी न किसी को मुख्यमंत्री वह बनाता ही है। यह निर्णय विश्वास की परीक्षा लेता है और सबसे विश्वसनीय व्यक्ति को वह मुख्यमंत्री बना भी देता है पर जब वह जेल से बाहर आता है और अपने पद को वह ले लेता है तो उसका सबसे विश्वसनीय व्यक्ति जिसको वह मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंचाता है उसके पीठ में छुरा भोंक देता है। ऐसा इस देश में अनेक बार हो चुका है।नेताओं की निष्ठा कहां गिरवी हो गई?
जिन नेताओं ने सरकार में रहकर हर तरह की सुविधाओं का लाभ उठाया ,सत्ता जाने के बाद वे बिना पद के पानी बगैर मछली की तरह नजर आए और अपनी वर्षों पुरानी विचारधारा का परित्याग कर फिर से सुविधा भोगने के लिए आगे हो लिए। यह दर्शाता है कि नेतृत्व ने अपने सारे मायने और सिद्धांत स्वयं खो दिए। आजतक नेतृत्व के जो भी सिद्धांत पुस्तकों और अनुभवों के क्षेत्र में आए वे स्वयं निरर्थक सिद्ध हो रहे हैं।लगता है वक्त आ गया है कि अब नेतृत्व अपना नया सिद्धांत लाने वाला है और किताबों के सिद्धांत किताब में ही रहने को बाध्य हैं। एक और बात जो दिख रही है वह यह कि अब विचारधारा की गहराई भी उतनी रहने वाली नही जितनी कभी हुआ करती थी। समाज खंडित हो रहा है इसलिए विचारधाराएं भी खंड खंड हो रही हैं। जाति गणना के उद्देश्यों पर पैनी नजर रखना देशप्रेमियों की नैतिक जिम्मेदारी भी है।
(महात्मा गांधी चित्रकूट ग्रामोदय विवि, चित्रकूट)
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