राजनीतिक दलों के लिए आत्मचिंतन का समय
- ज्ञानचंद पाटनी
लोकसभा चुनाव के परिणाम जिस तरह सामने आए हैं, उससे सभी तरह के पूर्वानुमान धरे रह गए हैं। देखा जाए तो सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों के लिए ही ये परिणाम अप्रत्याशित कहे जाएंगे। सत्ता पक्ष के लिए तो इसलिए क्योंकि उसका अबकी बार, चार सौ पार का नारा जनता ने साकार नहीं किया। यह आंकड़ा छूना तो दूर भाजपा अपने पांच साल पहले के प्रदर्शन को भी बरकरार नहीं रख पाई। वहीं विपक्षी दलों के गठबंधन ‘इंडिया’ के लिए ये नतीजे इसलिए अप्रत्याशित माने जा रहे हैं क्योंकि समुचित एकजुटता नहीं दिखाने के बावजूद वह एनडीए को टक्कर देता दिखाई दिया। वह और ताकत लगाता तो शायद परिणाम उसकी उम्मीदों के अनुरूप होते। बहरहाल, चुनावी नतीजों के विश्लेषण और हार-जीत के कारणों के पोस्टमार्टम का दौर भी सभी दल करने वाले हैं। राजनीतिक दल इसे आत्मचिंतन या मंथन का नाम देते हैं। यह मंथन निश्चित ही दोनों पक्षों की तरफ से अपने-अपने तरीकों से होगा।


भाजपा के लिए यह जानना जरूरी होगा कि आखिर उसे यूपी व राजस्थान जैसे बड़े प्रदेशों में इस तरह से पिछडऩे की नौबत क्यों आई? टिकट वितरण के दौरान उम्मीदवारों के चयन की प्रक्रिया व पार्टी के अपने कार्यकर्ताओं को नजरअंदाज कर दलबदल कर आए नेताओं को मौका देना भी इसकी बड़ी वजह मानी जा सकती है। इसमें दो राय नहीं है कि राहुल गांधी की अगुवाई में कांग्रेस ने बेहतर प्रदर्शन किया है। लेकिन सियासी दृष्टिकोण से देखें तो यह बात भी सामने आती है कि कांग्रेस व दूसरे दल जो ‘इंडिया’ में शामिल हुए उन्होंने सत्ता में आने के अपने संकल्प के अनुरूप एकजुटता नहीं दिखाई। भाजपा नेतृत्व के लिए यह सचमुच चिंता का विषय होगा ही कि विधानसभा चुनावों में बेहतर प्रदर्शन देने वाली पार्टी को राजस्थान जैसे प्रदेश में आखिर लोकसभा चुनाव में क्या हो गया? जबकि मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में पार्टी ने शानदार प्रदर्शन किया। कानून व्यवस्था में सुधार के यूपी मॉडल का प्रचार करने वाले उत्तरप्रदेश में मतदाता क्यों उससे इस तरह से छिटक गया?
जब चिंतन बैठकों का दौर शुरू होगा तो एनडीए और इंडिया गठबंधन के अलावा इससे इतर दूसरे दलों में भी हार-जीत के कारणों का विश्लेषण हो तो जनता की उम्मीदों को जरूर ध्यान में रखना चाहिए। आगामी दिनों में अब सरकार गठन की प्रक्रिया भी पूरी हो जाएगी। संतोष इस बात का भी कि लोकसभा इस बार मजबूत विपक्ष के साथ होगी। ऐसे में जितनी पक्ष से उम्मीद है उतनी ही प्रतिपक्ष से भी कि वह अगले पांच साल में जनता की आवाज बनकर काम करेगा।

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