हिंसा व्यवस्था पर सवाल
इलमा अजीम
मणिपुर में अब भी जिस तरह लगातार हिंसा जारी है और उसमें आम लोगों से लेकर सुरक्षा बलों तक को निशाना बनाया जा रहा है, उससे यही लगता है कि सरकार की व्यवस्था नाकाम हो चुकी है, उपद्रवी तत्त्वों पर कोई लगाम नहीं है। मणिपुर के कांगकोपकी जिले में संघर्षरत दो समुदायों के बीच रविवार को गोलीबारी हुई और उसमें एक व्यक्ति की मौत हो गई। इससे एक दिन पहले सुरक्षा बलों के एक शिविर पर उग्रवादियों ने हमला किया था, जिसमें केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल के दो जवान शहीद हो गए और दो जवान घायल हो गए। लग रहा है कि हिंसा में शामिल समूहों को खुली अराजकता के लिए छोड़ दिया गया है या फिर सरकार के स्थिति पर काबू पाने के दावे खोखले हैं। यह विचित्र है कि राज्य में हिंसा की शुरुआत को एक वर्ष होने आया है, मगर अब तक न तो सरकार हिंसक तत्वों को थाम सकी है, न ही समस्या का हल निकालने में उसकी कोई रुचि दिखती है। गौरतलब है कि मैतेई समुदाय को जनजाति का दर्जा देने के सवाल पर कुकी समुदाय के साथ शुरू हुई हिंसा में अब तक दो सौ से ज्यादा लोग जान गंवा चुके हैं, ग्यारह सौ से अधिक घायल हुए और करीब पैंसठ हजार को अपना घर-बार छोड़ना पड़ा है। अभी देश भर में लोकसभा चुनाव का दौर है। माना जाता है कि चुनावों के दौरान सुरक्षा व्यवस्था आम दिनों के मुकाबले इतनी सख्त होती है कि किसी भी अवांछित और आपराधिक गतिविधि को अंजाम देना संभव नहीं होता। हिंसाग्रस्त राज्य होने के नाते मणिपुर में सुरक्षा इंतजामों के और बेहतर होने की उम्मीद की जाती है। मगर हालत यह है कि चाक-चौबंद सुरक्षा व्यवस्था के दावों के बीच कहीं दो गुट आपस में सरेआम गोलीबारी कर लोगों की हत्या कर देते हैं, तो कहीं सुरक्षा बलों के शिविर पर हमला करके उनकी जान ले रहे हैं। ऐसे में समझना मुश्किल है कि समस्या का समाधान निकालने और हिंसा पर काबू पाने को लेकर सरकार की मंशा आखिर क्या है! सब ठीक कर देने या होने के दावों के बरक्स हकीकत अगर त्रासद है, तो कठघरे में सरकार है।
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