मतदान में युवा
 इलमा अजीम 
देश को अपने मूल लोकतांत्रिक सिद्धांतों को मजबूत बनाने के लिए अपनी युवा शक्ति का भरपूर इस्तेमाल करना चाहिए और राजनीति व लोकतंत्र में युवाओं की भागीदारी को बढ़ावा देना चाहिए। विश्वविद्यालयों और कॉलेजों में नियमित रूप से मतदाता पंजीकरण अभियान चलाए जाने के बावजूद, 18-19 आयु वर्ग में पंजीकृत मतदाताओं की संख्या में मामूली सुधार हुआ है। चूंकि मतदाता पंजीकरण एक जीवंत, समावेशी और मजबूत सहभागिता वाली लोकतांत्रिक व्यवस्था की पहली सीढ़ी है, ऐसे में मतदान के प्रति युवाओं की उदासीनता के कारणों को दूर करना जरूरी है। आंकड़ों के विश्लेषण से पता चलता है कि देश के कई शहरी युवा अपने मताधिकार के प्रयोग से दूर रहे हैं, और इस बात को लेकर राष्ट्रीय युवा नीति 2014 में भी चिंता जताई गई है। नीति में राजनीति में युवाओं की भागीदारी बढ़ाने पर जोर देने के अलावा यह भी कहा गया है कि राजनीति और प्रशासन में युवाओं की भागीदारी को बढ़ावा देने के लिए बेहद कम समन्वित प्रयास किए गए हैं। भारत की राजनीति को ‘युवा देश, बूढ़े नेता’ के रूप में परिभाषित किया जाता है। भारतीय राजनीति में अपनी धाक जमाने वाले ज्यादातर युवा नेता बड़े राजनीतिक परिवारों से ताल्लुक रखते हैं, जो सामाजिक-राजनीतिक रूप से बेहद प्रभावशाली हैं। हालांकि मुख्यधारा की लगभग हर राजनीतिक पार्टी का अपना एक स्टूडेंट विंग है और ये सभी पार्टियां कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में छात्र संघ के चुनावों में जोर शोर से भाग लेती हैं, लेकिन ऐसा कोई व्यवस्थित तंत्र मौजूद नहीं है जो छात्र नेताओं को विधायी राजनीति में आगे बढऩे में मदद कर सके और उन्हें मार्गदर्शन प्रदान कर सके। उदाहरण के लिए, 17वीं लोकसभा (2019-2024) में 40 वर्ष के कम उम्र सांसदों की संख्या महज 12 प्रतिशत है, वहीं स्वतंत्र भारत की पहली लोकसभा में 26 प्रतिशत सांसदों की उम्र 40 वर्ष से कम थी। खासकर (हर बड़े) चुनाव से पहले राजनीतिक पार्टियां अपने घोषणापत्रों में युवाओं के लिए महत्वाकांक्षी कार्यक्रम शुरू करने की बात करती हैं, जिनका अखबारों और सोशल मीडिया के जरिए भारी प्रचार किया जाता है। लेकिन चुनाव के बाद युवाओं के मुद्दों (शिक्षा और रोजगार) को तरजीह नहीं दी जाती, जो चुनावी राजनीति में युवाओं की कमजोर स्थिति को बताता है क्योंकि उनमें अपनी मांगों को मजबूती से रखने की क्षमता नहीं है। यहां तक कि छात्र नेता जब विधायी चुनावों में शामिल होते हैं, तो उनके पास राजनीतिक सौदेबाजी की ताकत बेहद सीमित होती है। इस तरह से देखें तो यही लगता है कि युवाओं की मतदाता भागीदारी अगर कम है तो यह एक विचित्र घटना न होकर एक अपेक्षित परिणाम मात्र है। भारत की राजनीतिक पार्टियों और नीति निर्माताओं को ऐसे रास्ते तलाशने होंगे जिनके जरिए युवाओं तक पहुंच बनाई जा सके और उन्हें देश की विकास यात्रा में भाग लेने के लिए प्रोत्साहित किया जा सके। 

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