नक्सलवाद पर कब लगेगी नकेल?

- योगेंद्र योगी
छत्तीसगढ़ के कांकेर में सुरक्षाबलों ने 29 नक्सलियों को ढेर कर दिया। इस ऑपरेशन के लिए सुरक्षाबलों को कड़ी मेहनत करनी पड़ी है। जवान नक्सलियों के अड्डे तक पहुंचने के लिए 20 घंटे तक पैदल चले हैं। नक्सलियों के समूह को देखने के बाद पुलिस ने फायरिंग शुरू की थी। जब बंदूकें शांत हुईं, तो जंगल के फर्श पर सूखे पत्तों के बीच 29 माओवादी मृत पड़े थे। इनमें ललिता, शंकर और दूसरे कमांडर विनोद गावड़े के शवों की पहचान सबसे पहले की गई। मृतकों में पंद्रह महिलाएं भी थीं। केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने नक्सलियों के खिलाफ मिली सफलता को केन्द्र और राज्य में भाजपा सरकार की उपलब्धि बताया। उन्होंने विश्वास जताया कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में बहुत कम समय में देश से नक्सलवाद को उखाड़ फेंका जाएगा।
छत्तीसगढ़ में भाजपा की सरकार बनने के बाद से इस अभियान को गति मिली है। नक्सली इलाकों में सुरक्षा बल कैंप लगाए जा रहे हैं। 19 के बाद इनकी संख्या 250 हो गई है। नक्सलियों के खिलाफ चलाए जा रहे अभियान में छत्तीसगढ़ पुलिस से भी मदद मिल रही है। राज्य में भाजपा सरकार बनने के बाद तीन महीने में 80 से ज्यादा नक्सली मारे गए हैं। 125 गिरफ्तार हुए हैं और 150 ने आत्मसमर्पण किया है। देश के 10 राज्यों में 70 जिलों में नक्सलवाद का प्रभाव है। इनमें सबसे ज्यादा प्रभावित राज्य झारखंड है, जहां 16 जिले हैं। वहीं छत्तीसगढ़ में नक्सल प्रभावित 14 जिले शामिल हैं। छत्तीसगढ़ में पिछले 14 सालों के भीतर 1582 नक्सली मुठभेड़ें हुई हैं।
इन मुठभेड़ों के दौरान 1452 नक्सली मारे गए हैं। इस बीच 1002 आम नागरिकों की भी मौत हुई है। वहीं इन हमलों में 1222 जवान शहीद हो चुके हैं। छत्तीसगढ़ में नई सरकार के गठन के बाद नक्सलियों को आशंका थी कि सरकार उनके खिलाफ अभियान तेज करेगी और हुआ भी ऐसा ही। राज्य की नई सरकार ने शांति का प्रस्ताव भी सामने रखा था, लेकिन नक्सल नेताओं की तरफ से इस प्रस्ताव पर कोई सकारात्मक प्रतिक्रिया नहीं आई। वहीं दूसरी तरफ पुलिस और सुरक्षाबलों को बस्तर में फ्री हैंड कर दिया गया है। ऐसे में पिछले तीन महीनों में नक्सलियों को कई बड़े नुकसान उठाने पड़े हैं। अब तक जहां माओवादियों के बटालियन स्तर के नेता ही ढेर हुए थे, तो इस बार शंकर राव जैसे डिवीजन लेवल का नेता पुलिस की गोली का शिकार हुआ है। ऐसे में नक्सली प्रदेश में पूरी तरह से बैकफुट में हैं। अब लगातार सवाल किए जा रहे हैं कि आखिर कब तक छत्तीसगढ़ को इस नक्सल दंश से छुटकारा मिल पाएगा और बस्तर में खून की होली थमेगी? सरकार, सुरक्षा बलों एवं स्थानीय लोगों की संयुक्त कोशिशों का परिणाम है कि पिछले एक दशक में वामपंथी अतिवाद संबंधी घटनाओं, मौतों और उनके भौगोलिक प्रसार में काफी कमी आई है। जहां वर्ष 2010 में वामपंथी अतिवाद से प्रभावित जिलों की संख्या 96 थी, वहीं वर्ष 2018 में प्रभावित जिलों की संख्या 60 रह गई है। वर्ष 2009 में जहां नक्सलवाद की घटनाओं और इन घटनाओं में मरने वालों की संख्या क्रमश 2258 व 1005 थी, वहीं वर्ष 2018 में यह संख्या घटकर क्रमश 833 एवं 240 रह गई। देश के जिन 8 राज्यों के लगभग 60 जिलों में यह समस्या बनी हुई है, उनमें ओडिशा के 5, झारखंड के 14, बिहार के 5, आंध्र प्रदेश और छत्तीसगढ़ के 10, मध्य प्रदेश के 8, महाराष्ट्र के 2 तथा बंगाल के 8 जिले शामिल हैं। वर्ष 2015 के बाद से नक्सलियों के 90 प्रतिशत हमले लगभग चार राज्यों- छत्तीसगढ़, झारखंड, बिहार और ओडिशा में हुए हैं।
माओवादियों के थिंक टैंक और प्रथम पंक्ति के नेता या तो मारे जा चुके हैं या इस विचारधारा को छोड़ चुके हैं। भारत में नक्सली हिंसा की शुरुआत वर्ष 1967 में पश्चिम बंगाल में दार्जिलिंग जिले के नक्सलबाड़ी नामक गांव से हुई और इसीलिए इस उग्रपंथी आंदोलन को नक्सलवाद के नाम से जाना जाता है। जमींदारों द्वारा छोटे किसानों के उत्पीडऩ पर अंकुश लगाने के लिए सत्ता के खिलाफ चारू मजूमदार, कानू सान्याल और कन्हाई चटर्जी द्वारा शुरू किए गए इस सशस्त्र आंदोलन को नक्सलवाद का नाम दिया गया। यह आंदोलन चीन के कम्युनिस्ट नेता माओ त्से तुंग की नीतियों का अनुगामी था। आंदोलनकारियों का मानना था कि भारतीय मजदूरों और किसानों की दुर्दशा के लिए सरकारी नीतियां जिम्मेदार हैं। ये लोकतंत्र एवं लोकतांत्रिक संस्थाओं के खिलाफ हैं और जमीनी स्तर पर लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं को खत्म करने के लिए हिंसा का सहारा लेते हैं। ये समूह देश के अल्प विकसित क्षेत्रों में विकासात्मक कार्यों में बाधा उत्पन्न करते हैं और लोगों को सरकार के प्रति भड़़क़ाने की कोशिश करते हैं। केंद्र और राज्य सरकारें माओवादी हिंसा को मुख्यत: कानून-व्यवस्था की समस्या मानती रही हैं, लेकिन इसके मूल में गंभीर सामाजिक-आर्थिक कारण भी रहे हैं। नक्सलियों का कहना है कि वे उन आदिवासियों और गरीबों के लिए लड़ रहे हैं, जिनकी सरकार ने दशकों से अनदेखी की है। वे जमीन के अधिकार एवं संसाधनों के वितरण के संघर्ष में स्थानीय सरोकारों का प्रतिनिधित्व करते हैं। माओवाद प्रभावित अधिकतर इलाके आदिवासी बहुल हैं और यहां जीवनयापन की बुनियादी सुविधाएं तक उपलब्ध नहीं हैं, लेकिन इन इलाकों की प्राकृतिक संपदा के दोहन में सार्वजनिक एवं निजी क्षेत्र की कंपनियों ने कोई कमी नहीं छोड़ी है। यहां न सडक़ें हैं, न पीने के लिए पानी की व्यवस्था, न शिक्षा एवं स्वास्थ्य संबंधी सुविधाएं और न ही रोजगार के अवसर। नक्सलवाद के उभार के आर्थिक कारण भी रहे हैं। नक्सली सरकार के विकास कार्यों के कार्यान्वयन में बाधा उत्पन्न करते हैं। वे आदिवासी क्षेत्रों का विकास नहीं होने देते और उन्हें सरकार के खिलाफ भडक़ाते हैं। वे लोगों से वसूली करते हैं एवं समांतर अदालतें लगाते हैं। प्रशासन तक पहुंच न हो पाने के कारण स्थानीय लोग नक्सलियों के अत्याचार का शिकार होते हैं।
अशिक्षा और विकास कार्यों की उपेक्षा ने स्थानीय लोगों एवं नक्सलियों के बीच गठबंधन को मजबूत बनाया है। नक्सलवादियों की सफलता की वजह उन्हें स्थानीय स्तर पर मिलने वाला समर्थन रहा है, जिसमें अब धीरे-धीरे कमी आ रही है। सरकार नक्सली चरमपंथ से निबटने के लिए बहुआयामी रणनीति अपना रही है। इसमें सुरक्षा एवं विकास से संबंधित उपाय तथा आदिवासी एवं अन्य कमजोर वर्ग के लोगों को उनका अधिकार दिलाने से संबंधित उपाय शामिल हैं। सरकार वामपंथी अतिवाद से प्रभावित क्षेत्रों में बुनियादी ढांचे, कौशल विकास, शिक्षा, ऊर्जा और डिजिटल संपर्क का यथासंभव विस्तार करने के भी प्रयास कर रही है। सरकार की इस नीति के परिणामस्वरूप नक्सलियों के हौसले कमजोर हुए हैं तथा उनके आत्मसमर्पण की संख्या लगातार बढ़ रही है। विमुद्रीकरण ने भी नक्सलियों को पहुंचने वाली वित्तीय सहायता पर लगाम लगाई है और इसके बाद से अब तक 700 से अधिक माओवादियों ने आत्मसमर्पण किया है। सरकार वामपंथी अतिवाद से प्रभावित क्षेत्रों में सडक़ें बनाने की योजना पर तेजी से काम कर रही है और वर्ष 2022 तक 48877 किलोमीटर सडक़ें बनाने का लक्ष्य रखा गया है। वामपंथी अतिवाद से प्रभावित क्षेत्रों में संचार सेवाओं को मजबूत बनाने के लिए सरकार बड़ी संख्या में मोबाइल टावर लगाने का काम कर रही है। इसके तहत कुल 4072 मोबाइल टावर लगाने का लक्ष्य रखा गया है। निश्चित तौर पर पुलिस की दबाव बनाने की सक्रिय कार्रवाई और विकास बहुआयामी योजनाओं से नक्सली समस्या जड़-मूल से समाप्त हो सकेगी। इस समस्या के समाधान के लिए जनता का समर्थन भी जुटाना होगा।

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