नक्सली चुनौती

 इलमा अजीम 
छत्तीसगढ़ के कांकेर में बीते दिनों सुरक्षाबलों ने मुठभेड़ में उनतीस नक्सलियों को मार गिराया। निस्संदेह यह बड़ी कामयाबी है। इस वर्ष इस घटना सहित अब तक करीब अस्सी नक्सली मारे जा चुके हैं। सरकार का कहना है कि छत्तीसगढ़ में नक्सली कुछ इलाकों तक सिमट कर रह गए हैं। जल्दी ही उन पर पूरी तरह नकेल कसी जा सकेगी। केंद्र और राज्य सरकारें ऐसे दावे बहुत समय से करती आ रही हैं, मगर हकीकत यह है कि अनेक उपायों, रणनीतियों और प्रयासों के बावजूद वहां माओवादी हिंसा पर काबू पाना कठिन बना हुआ है। थोड़े-थोड़े समय पर नक्सली सक्रिय हो उठते और घात लगा कर सुरक्षाबलों पर हमला कर देते हैं। छत्तीसगढ़ में करीब चालीस वर्ष से माओवादी हिंसा का दौर चल रहा है। इस बीच अनेक रणनीतियां अपनाई गईं, मगर वे कारगर नहीं हो पाईं हैं। चुनाव के माहौल में सुरक्षाबलों की ताजा कामयाबी से नक्सली उपद्रवियों का मनोबल जरूर कमजोर होगा, पर इस समस्या को जड़ से समाप्त करने के लिए व्यावहारिक कदम की अपेक्षा अब भी बनी हुई है। दरअसल, आदिवासी इलाकों में माओवादी हिंसा की कई परतें हैं। आदिवासियों को लगता है कि सरकार उनके जंगल और जमीन छीन कर उद्योगपतियों को सौंप देना चाहती है। वे इसका विरोध करते रहे हैं। शुरू में इस मसले को बातचीत के जरिए सुलझाने की कोशिश की गई, मगर वह किसी नतीजे पर नहीं पहुंच सकी। फिर बंदूक के जरिए उन पर काबू पाने का प्रयास किया जाने लगा। फिर आदिवासियों और समर्पण करने वाले नक्सलियों को ही बंदूक देकर नक्सली संगठनों के खिलाफ खड़ा करने की रणनीति अपनाई गई। उसमें काफी खून-खराबा हुआ, मगर नक्सली समस्या को समाप्त कर पाना संभव न हो सका। हेलीकाप्टर, ड्रोन और अत्याधुनिक संचार तकनीकी के जरिए उनकी गतिविधियों पर नजर रखी जाने लगी, पर उसमें भी बहुत कामयाबी नहीं मिल सकी।सबसे जरूरी है, स्थानीय आदिवासियों में यह भरोसा पैदा करना कि सरकार उनके जीवन में बेहतरी के लिए प्रतिबद्ध है। उनके जल, जंगल, जमीन के मसले पर संजीदगी से बात हो, तो शायद वे हिंसा का रास्ता छोड़ने को तैयार हो जाएं।

No comments:

Post a Comment

Popular Posts