युवाओं के हौसलों की उड़ान को संबल

- प्रमोद भार्गव
बीते कुछ सालों में भारत ने अंतरिक्ष के क्षेत्र में अनेक वैश्विक उपलब्धियां हासिल करके दुनिया को चौंकाने का काम कर दिया है। इनमें पहली बार चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव पर पहुंचना, सूर्य के अध्ययन के लिए आदित्य-एल मिशन प्रक्षेपित करना और इसरो द्वारा ब्लैक होल के रहस्यों को खंगालने के लिए उपग्रह भेजने जैसी उपलब्धियां शामिल हैं। भविष्य में भारत अंतरिक्ष में मानव युक्त गगनयान भेजने और शुक्र ग्रह पर पर जाने की तैयारी में है। धरती और समुद्री सतह पर भी उल्लेखनीय वैज्ञानिक उपलब्धियां हासिल की हैं। बावजूद वैज्ञानिक अनुसंधानों में भारत कई देशों से पिछड़ रहा है। धन की कमी के चलते संस्थाएं और मौलिक सोच रखने वाले युवा सपने देखते ही रह जाते हैं। इसकी एक वजह निजी क्षेत्र का अनुसंधान में ज्यादा योगदान नहीं देना भी रहा है।
अब 2024 के अंतरिम बजट में ऐसे प्रावधान कर दिए हैं, जो युवाओं के सपने पूरा करने में मदद करेंगे। उन्हें अब धन की कमी आड़े नहीं आएगी। शोध के लिए वे जितना चाहेंगे, ब्याज मुक्त धन मिल जाएगा। बजट में सरकार ने युवाओं के सपने साकार करने के लिए बड़ा ऐलान किया है। इसके अंतर्गत 50 वर्षों तक के लिए ब्याज मुक्त ऋण हेतु एक लाख करोड़ रुपये की निधि तय की गई है, इससे उभरते नवीन क्षेत्रों में अनुसंधान और आविष्कारों के लिए आर्थिक मदद दी जाएगी। इस पहल से शोध में तो तेजी आएगी ही, नए रोजगार भी विकसित होंगे। इसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ‘जय अनुसंधान’ नारे से जोड़कर देखा जा रहा है।
हालांकि नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति के अंतर्गत ‘राष्ट्रीय शोध संस्थान’ के गठन की घोषणा की थी। 2021 के बजट में इस मकसद पूर्ति के लिए 5 वर्षों में 50 हजार करोड़ रुपये खर्च भी किए जाने हैं। इस परिप्रेक्ष्य में शैक्षणिक संस्थानों के साथ मिलकर शोध के क्षेत्र में तेजी आई हुई है। इसका कारगर परिणाम हाल ही में जारी हुई उच्च शिक्षण संस्थानों की विश्वस्तरीय रैंकिंग में दिखा दी है। अब तक भारत अपनी जीडीपी का मात्र 0.65 प्रतिशत शोध पर खर्च करता रहा है। अतएव एक लाख की आबादी पर महज 26 शोधार्थी ही नए शोध कर पाते हैं, जबकि निम्न आय वाले देशों में यह अनुपात 32 और चीन में 169 एवं अमेरिका में 445 है। धन की कमी से शोध कार्य न केवल लंबे खिंचते हैं, बल्कि कभी-कभी अप्रासंगिक भी हो जाते हैं। इस नाते भारत अनुसंधान के पैमाने पर चीन और अमेरिका से तो पीछे है ही, दक्षिण अफ्रीका से भी पिछड़ा है, दक्षिण अफ्रीका में जीडीपी दर 0.8 प्रतिशत है, जो भारत से अधिक है।
बहरहाल, आर एंड डी पर विश्व का औसत खर्च 1.8 प्रतिशत है, अतएव हम औसत खर्च का आधा भी खर्च नहीं करते हैं। भारत का शोध पर कुल खर्च 17.6 अरब डॉलर है, जबकि अमेरिका का 581 और चीन का 298 अरब डॉलर है। नतीजतन हम नए अनुसंधान, आविष्कार और स्वदेशी उत्पाद में पिछड़े हैं। इसीलिए पेटेंट के क्षेत्र में भारत विकसित देशों की बराबरी करने में पिछड़ गया है। भारत से कम जीडीपी वाले फ्रांस, इटली, ब्रिटेन और ब्राजील भी हमसे कई गुना ज्यादा धन शोध पर खर्च करते हैं। यदि यही सिलसिला जारी रहता तो वैश्विक प्रतिस्पर्धा में भारत भविष्य में कैसे टिक पाता? गोया, शोध के क्षेत्र में धन बढ़ाकर भारत ने न केवल युवाओं के हौसलों को उड़ान भरने का सुनहरा अवसर दिया है, बल्कि आविष्कार के क्षेत्र में आत्मनिर्भर हो जाने का मार्ग भी प्रशस्त कर दिया है।
भारत में उच्च शिक्षा के 40 हजार से ज्यादा संस्थान हैं। इनमें से सिर्फ एक प्रतिशत में अनुसंधान होता है। इसीलिए अब तक दुनिया के 100 बेहतरीन संस्थानों में से भारत का एक भी नहीं है। शोध का अवसर नहीं मिलने के चलते ही भारत के युवा अमेरिका, जर्मनी और ब्रिटेन में पीएचडी के लिए चले जाते हैं। इनमें से अधिकतर वापस भी नहीं लौटते। पिछले साल अमेरिका में विज्ञान पढ़ने वाले विदेशी छात्रों में सबसे ज्यादा भारत के ही छात्र थे। भारत में सरकार या सरकारी संस्थाएं ही सबसे ज्यादा शोध का खर्च वहन करती हैं। जबकि अमेरिका में सरकार शोध पर सिर्फ 10 प्रतिशत और चीन में सिर्फ 16 प्रतिशत खर्च करती हैं। बाकी खर्च निजी क्षेत्र उठाता है। यदि भारत के निजी उच्च शिक्षा संस्थान शोध के क्षेत्र में खर्च की भागीदारी बढ़ा दें तो शोध का स्तर बेहतर हो सकता है। यदि ऐसा होता है तो संभव है कि भारत विज्ञान के क्षेत्र में शिखर पर पहुंच जाए। इसकी एक बड़ी वजह यह भी है कि विज्ञान के क्षेत्र में भारतीयों की रुचि अधिक है। भारत दुनिया का अकेला ऐसा देश हैं, जहां के 31 प्रतिशत विद्यार्थी विज्ञान, गणित और तकनीकी विषयों में सबसे ज्यादा रुचि लेते हैं। इसके बाद इस्राइल है जहां के 27 प्रतिशत छात्र और फिर अमेरिका आता है, जहां के 20 प्रतिशत छात्र विज्ञान, गणित और तकनीकी विषयों में रुचि लेते हैं।
हालांकि नवाचारी वैज्ञानिकों को लुभाने की सरकार ने अनेक कोशिशें की हैं। बावजूद देश के लगभग सभी शीर्ष संस्थानों में वैज्ञानिकों की कमी है। वर्तमान में देश के 70 प्रमुख शोध-संस्थानों में 3200 वैज्ञानिकों के पद खाली हैं। बेंगलुरु के वैज्ञानिक एवं औद्योगिक अनुसंधान परिषद (सीएसआईआर) से जुड़े संस्थानों में सबसे ज्यादा 177 पद रिक्त हैं। पुणे की राष्ट्रीय रसायन प्रयोगशाला में 123 वैज्ञानिकों के पद खाली हैं। देश के इन संस्थानों में यह स्थिति तब है, जब सरकार ने पदों को भरने के लिए आकर्षक योजनाएं शुरू की हुई हैं। इनमें रामानुजन शोधवृत्ति, सेतु-योजना, प्रेरणा-योजना और विद्यार्थी-वैज्ञानिक संपर्क योजना शामिल हैं। महिलाओं के लिए भी अलग से योजनाएं लाई गई हैं। इनमें शोध के लिए सुविधाओं का भी प्रावधान है।


इसके साथ ही राज्यों में कार्यरत वैज्ञानिकों को स्वदेश लौटने पर आकर्षक पैकेज देने के प्रस्ताव दिए जा रहे हैं। बावजूद परदेस से वैज्ञानिक लौट नहीं रहे हैं। इसकी पृष्ठभूमि में एक तो वैज्ञानिकों को यह भरोसा पैदा नहीं हो रहा है कि जो प्रस्ताव दिए जा रहे हैं वे निरंतर बने रहेंगे? दूसरे नौकरशाही द्वारा कार्यप्रणाली में अड़ंगों की प्रवृत्ति भी भरोसा पैदा करने में बाधा बन रही है।

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