चुनावी नतीजों के निहितार्थ
इलमा अजीम
चार राज्यों के विधानसभा चुनावों के अप्रत्याशित परिणामों ने जहां राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ की जीत से भाजपा को ताकत दी है, वहीं तेलंगाना की हार ने बता दिया कि भाजपा के लिये दक्षिण भारत में आगामी आम चुनाव मुश्किल चुनौती बनने वाले हैं। इस चुनाव का सबसे महत्वपूर्ण पक्ष यह भी है कि चुनाव जातिवाद, धर्म और अन्य संकीर्ण मुद्दों के बजाय विकास के मुद्दों पर लड़ा गया। विपक्ष की जातीय आधार पर सत्ता में हिस्सेदारी की बात को मतदाताओं ने तरजीह नहीं दी। वहीं भाजपा के सुनियोजित चुनाव अभियान, स्टार प्रचारक के रूप में नरेंद्र मोदी की स्वीकार्यता व कांग्रेस की संगठन की खामियों ने समीकरण बदले। निस्संदेह, केंद्र की सत्ता में काबिज भाजपा के डबल इंजन के नारे को तरजीह मिली है। वहीं एक निष्कर्ष यह भी है कि देश का मतदाता चुनावों में राष्ट्रीय दलों पर विश्वास जता रहा है। चारों राज्यों के चुनाव में क्षेत्रीय क्षत्रपों की उम्मीदों पर पानी फिरा है। तेलंगाना में भारत राष्ट्र समिति यानी बीआरएस प्रमुख के. चंद्रशेखर राव की शिकस्त को इस दृष्टि से देखा जा सकता है। लेकिन वहीं भाजपा के लिये यह मंथन का समय भी है कि कांग्रेस फिर से दक्षिण भारत की पहली पसंद बनी हुई है। इस चुनाव का एक सार्थक संदेश यह है कि मतदाताओं ने भ्रष्टाचार व परिवारवाद को सिरे से खारिज किया है। वीआरएस के सफाये को इस उदाहरण के रूप में देखा जा सकता है। दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि तेलंगाना की जनता ने 2013 में तेलंगाना राज्य गठन में महत्वपूर्ण योगदान के लिये कांग्रेस के प्रति आभार जताया है। प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष रेवंत रेड्डी के रूप में पार्टी को नया उम्मीदों का चेहरा मिला है। बहरहाल, इन चुनाव परिणामों ने आम चुनाव की राह तय कर दी है। जाहिर बात है कि कई गारंटियां कांग्रेस ने भी दी थी लेकिन जनता का सकारात्मक प्रतिसाद मोदी की गारंटी को मिला। बिना मुख्यमंत्री के चेहरों को सामने रखे मध्यप्रदेश, राजस्थान व छत्तीसगढ़ में चुनाव जीतना इस बात का पर्याय है कि मोदी की छवि राष्ट्रीय स्तर पर स्वीकार्यता बनी हुई है।
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