ऋण मुक्ति को बने ठोस योजना
इलमा अजीम
यह तथ्य परेशान करने वाला है कि आजादी के बाद भी देश का किसान कर्ज के जाल से मुक्त नहीं हो पाया है। पहले वह साहूकारों व एजेंटों का शिकार था, अब राष्ट्रीय व सहकारी बैंकों के कर्जजाल में उलझा हुआ है। वह पुरानी कहावत अप्रासंगिक नहीं हुई है कि ‘किसान ऋण में पैदा होता है, ऋण में जीता है और अपनी संतान के लिये ऋण छोड़कर दुनिया से चला जाता है।’ राष्ट्रीय कृषि एवं ग्रामीण विकास बैंक यानी नाबार्ड की हालिया रिपोर्ट चौंकाती है कि देशभर के किसानों पर 21 लाख करोड़ का कर्ज शेष है। दरअसल, यह ऋण देश के राष्ट्रीयकृत बैंकों, निजी बैंकों, सहकारी तथा आंचलिक बैंकों द्वारा दिया गया है। आंकड़े बता रहे हैं कि साढ़े पंद्रह करोड़ खाताधारकों में से प्रत्येक पर एक लाख पैंतीस हजार का कर्ज चढ़ा हुआ है। यह आकंड़ा तो सिर्फ बैंकों का है। यदि इसमें साहूकारों व दूसरे बिचौलियों तथा किसान की खड़ी फसल पर कर्ज देने वाले आढ़तियों का कर्ज भी जोड़ दिया जाये तो स्थिति भयावह रूप में सामने आ सकती है। यह स्थिति साफ बताती है कि किसान के लिये खेती घाटे का सौदा साबित हो रही है। जिसके चलते बड़ी संख्या में किसान आये दिन खेती छोड़ने को मजबूर हो रहे हैं। कहने को तो किसानों की आय दुगनी करने के वायदे हुए थे। लेकिन वास्तविक स्थिति देखकर अंदाजा लगाया जा सकता है कि खेती जीवन निर्वाह की उपज देने में भी विफल रही है। जाहिर है किसान के लिये खेती लाभकारी नहीं रही तभी उसे बार-बार कर्ज लेकर घाटे को पूरा करना पड़ रहा है। जो इस कृषि प्रधान देश के लिये गंभीर चुनौती मानी जा सकती है। दरअसल, किसानों के कर्ज में डूबने की बड़ी वजह प्राकृतिक आपदाओं से खेती को होने वाला नुकसान भी है। ग्लोबल वार्मिंग के दुष्प्रभावों ने किसानों की उपज को बुरी तरह प्रभावित करना शुरू कर दिया है। वहीं दूसरी ओर खाद, बीज, सिंचाई के साधनों और पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतों में तेजी ने किसान की खाद्यान्न उत्पादन की लागत को बढ़ाया है। जिसके चलते उसका मुनाफा घटा है और खेती जीवन निर्वाह का साधन नहीं बन पायी है। यही वजह है कि सारे देश में किसानों के कर्ज की स्थिति खराब हुई है।यदि प्राकृतिक आपदाओं व मौसम की मार से किसानों को राहत दिलाने के लिये गंभीर प्रयास किये जाएं तो किसानों के कर्ज का बोझ किसी हद तक कम हो सकता है। निश्चित रूप से कर्ज माफी भी समस्या का अंतिम समाधान नहीं है।
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