राजनीतिः देश के साथ नहीं
 इलमा अजीम 
देश की संसद लोकतंत्र का सर्वोच्च मंदिर है, लेकिन सवाल यह उठता है कि क्या लोकतंत्र के इस मंदिर की मर्यादा को लगातार भंग करने के प्रयास नहीं किए जा रहे? हमारी संसद जन आकांक्षाओं की प्रतिनिधि मानी जाती है। लेकिन संसद की कार्यवाही के दौरान शोर-शराबे को देखते हुए तो यह सवाल भी उठता है कि क्या हमारे माननीय सांसद ही संसद की गरिमा और मर्यादा से लगातार खिलवाड़ नहीं कर रहे? कभी यूपीए सरकार की ओर से बताया गया था कि संसद की एक मिनट की कार्यवाही पर लगभग ढाई लाख रुपए खर्च होते हैं। उसके बाद यह खर्च और माननीयों के वेतन-भत्ते-सुविधाओं पर होने वाला खर्च बढ़ा ही है। फिर ऐसा क्यों है कि संसद के विधायी कार्यों में अड़चनें आ जाती हैं। हमारी विधायिकाओं, जिनमें संसद भी शामिल हैं, के तीन प्रमुख कार्य अपेक्षित हैं। पहला, गंभीर चर्चा के बाद विधेयक पारित कर जरूरी कानून बनाना। दूसरा, जनहित के मुद्दों पर चर्चा करते हुए सरकार की जवाबदेही तय करना। तीसरा, प्रश्नकाल-ध्यानाकर्षण आदि प्रावधानों के जरिए महत्त्वूपर्ण विषय उठाते हुए उन पर चर्चा करना। चारों तरफ देखते हैं तो लगता है कि विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र की संसद अब इन तीनों ही कसौटियों पर पूरी तरह खरा नहीं उतर पा रही। पिछले दिनों ही समाप्त हुआ संसद का मानसून सत्र किस तरह सत्तापक्ष और विपक्ष की राजनीतिक रस्साकसी का शिकार हो गया, पूरा देश इसका गवाब बना। बजट सत्र भी राजनीतिक दांवपेचों की भेंट चढ़ गया था। अपनी जिम्मेदारी-जवाबदेही के प्रति हमारे माननीयों की गंभीरता का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि केंद्रीय बजट तक बिना चर्चा के पारित कर दिया गया। अतीत में भी ऐसे उदाहरण खूब हैं। दरअसल, अब संसद चलती कम है, बाधित ज्यादा होती है। यह गंभीर लोकतांत्रिक संकट है। इस चिंताजनक तस्वीर पर भी हमारे तमाम जनप्रतिनिधियों को चिंता करनी ही होगी। और, रही बात राजनीति करने की तो हमारे माननीयों को यह भी समझना होगा कि राजनीति देश के लिए की जानी चाहिए, देश के साथ नहीं।

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