प्रदूषणमुक्त हों पवित्र नदियां
इससे पहले कि आस्था की नदियां प्रदूषण के अजाब से उत्तर प्रदेश की ‘कर्मनाशा’ नदी की तरह श्रापित होकर अपवित्र हो जाएं, ऋषि वाल्मीकि की ‘तमसा’ की तरह मृतप्राय: हो जाएं, अमृतमयी ‘सरस्वती’ नदी की तरह लुप्त हो जाएं, पवित्र नदियां प्रदूषण मुक्त होनी चाहिए। सनातन संस्कृति के धार्मिक ग्रंथों, वेदों व उपनिषदों में मानव संस्कृति की जननी नदियों की महिमा का उल्लेख ऋषियों ने हजारों वर्ष पूर्व कर दिया था। हमारे मनीषियों ने वैदिक साहित्य की रचना नदियों के सानिध्य में ही की थी। वैदिक संस्कृति का उद्गम जल से ही हुआ है। नदियों को मां की संज्ञा देना मनीषियों का जल के महत्त्व व नदियों के प्रति सकारात्मक सोच को दर्शाता है। सनातन कर्मकांड व धार्मिक समारोहों की रस्मों के मंत्रोच्चारण में पवित्र नदियों का प्रसंग जरूर आता है। गंगा, यमुना, सरस्वती, सरयू, सिंधू, नर्मदा, रावी, ब्यास व सतलुज जैसी नदियों की चर्चा किए बिना सनातन संस्कृति की कल्पना व भारत का गौरवमयी इतिहास अधूरा रहेगा। देश के कई राज्यों में बहने वाली पौराणिक महत्त्व वाली नदियां करोड़ों लोगों की आस्था का केन्द्र हैं। सब नदियों में श्रेष्ठ ‘गंगा जी’ पवित्र नदियों की प्रतिनिधि है। अपने शुद्धिकरण के लिए विश्व में विख्यात रही सांस्कृतिक विरासत तीर्थमयी गंगा प्रदूषण की मार झेलकर अपनी पवित्रता पर अफसोस जाहिर कर रही है। राष्ट्रीय नदी का दर्जा प्राप्त गंगा की स्वच्छता के लिए ‘नमामि गंगे’ व ‘स्वच्छ गंगा’ तथा ‘गंगा एक्शन प्लान’ जैसे अभियान चल रहे हैं। सांस्कृतिक विरासत पवित्र गंगा के प्राकृतिक सौदर्य व निर्मलता को सहेजने के लिए सियासत के बड़े प्रयासों की जरूरत है। पवित्र नदियों व जलस्रोतों के प्रति आस्था हमारी संस्कृति रही है। प्रकृति की रक्षा करना हमारा धर्म रहा है, मगर आधुनिक समाज उन परंपराओं को दरकिनार कर चुका है। कई सांस्कृतिक विविधताओं को समेटे हुए करोड़ों आबादी का पालन-पोषण करने वाली सब नदियों का सम्मान मातृ स्वरूपा गंगा के रूप में ही होना चाहिए। भारत का वैभव रहीं आस्था की नदियों में प्रदूषण देश की व्यवस्थाओं से प्रश्न पूछने को मजबूर करता है। अत: नदियों की निर्मलता के लिए अपने पुरखों द्वारा निर्धारित सरोकारों व संस्कारों को अपनाने की जरूरत है। 

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