भारतीय संस्कृति में विद्या का मतलब

- सर्वमित्रा सुरजन
भारतीय संस्कृति में विद्या का मतलब केवल ज्ञान प्राप्त करना नहीं होता, बल्कि हम इसे दैवीय संदर्भों में देखते हैं। विद्या की देवी होती है। कलम-पुस्तक की हम पूजा करते हैं। गलती से पैर लग जाए, तो प्रणाम कर माफी मांगते हैं। बल्कि विद्या का पेड़ भी हमारे देश में होता है, बोलचाल में इसे मोरपंखी कहते हैं और इसका वैज्ञानिक नाम प्लैटीक्लैडस ओरिएंटेलिस है। इस विद्या की पेड़ की पत्ती को पुस्तक में दबा कर रखने की सलाह दी जाती है, ताकि विद्या और धन दोनों की प्राप्ति हो। गजब का विरोधाभास है, एक ओर विद्या के जरिए बच्चों को मेहनती और ईमानदार बनने की सीख दी जाती है, दूसरी ओर उन्हें भाग्यवादी बनाया जाता है।
कॉपी-किताबों को अगरबत्ती दिखाने या विद्या की पत्ती को साथ रखने से अगर ज्ञानी हुआ जाता तो फिर दुनिया के तमाम बड़े आविष्कार भारत में ही होते। हमारे बच्चों को उच्च शिक्षा और शोध कार्यों के लिए विदेश जाने के अवसर नहीं ढूंढने पड़ते। अभी तो हम शून्य के आविष्कार के गर्व से ही फूले नहीं समा रहे हैं। संस्कृति और विरासत पर गर्व के इस गठजोड़ में अब राष्ट्रवाद की मोटी परत भी चढ़ चुकी है, सो हम खुद को विश्व गुरु मानने लगे हैं। और इस घमंड में देख ही नहीं पा रहे कि किस तरह बुनियादी शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा तक में गिरावट आती जा रही है। सरकारी शिक्षा संस्थाएं खोखली और जर्जर हो रही हैं। लेकिन दावे अब भी बड़े-बड़े ही हो रहे हैं।



इस साल भारत जी-20 की अध्यक्षता कर रहा है। पिछले महीने जी-20 के शिक्षा से संबद्ध कार्य समूह की बैठक चेन्नई में हुई। इसमें केन्द्रीय सूचना और प्रसारण राज्य मंत्री डॉक्टर एल. मुरुगन ने प्रधानमंत्री के दृष्टिकोण का हवाला देते हुए कहा कि भारत का प्रयास रहेगा कि सभी को न्यायसंगत और समान रूप से सतत, समग्र, जिम्मेदार और समावेशी विकास का अवसर मिले। प्रौद्योगिकी आधारित शिक्षा को और समावेशी, गुणवत्तापूर्ण और सहयोगात्मक बनाया जाएगा। समावेशी का मतलब है सभी के लिए समान नजरिया रखना। समावेशी शिक्षा सभी नागरिकों के समानता के अधिकार की बात करती है। शिक्षा में न्यायसंगत और जिम्मेदार होने का अर्थ भी कमोबेश यही है कि किसी के साथ अन्याय न हो। प्रधानमंत्री ऐसा दृष्टिकोण रखते हैं और जी-20 के अन्य सदस्य देशों से इसे साझा करते हैं, तो यह प्रसन्नता की बात है।
लेकिन क्या प्रधानमंत्री इस बात का संज्ञान लेते हैं कि देश के कई शिक्षा संस्थानों में किस तरह अन्याय की जड़ें मजबूत हो रही हैं। खासकर जातिगत भेदभाव को लेकर। क्या प्रधानमंत्री को रोहित वेमुला याद है, जिसने आत्महत्या से पहले लिखे खत में अपने जन्म को एक भयंकर हादसा बताया था। अपने शैक्षणिक संस्थान में अपनी विचारधारा के कारण वह प्रताड़ित हुआ और इसलिए भी कि वह दलित था। क्या प्रधानमंत्री दर्शन सोलंकी को जानते हैं, जिसने आईआईटी मुंबई के पहले ही साल में आत्महत्या कर ली। संस्थान की अंतरिम रिपोर्ट में दर्शन की आत्महत्या का कारण उसके बिगड़े अकादमिक प्रदर्शन और अंतर्मुखी स्वभाव को बताया गया है। लेकिन दर्शन के परिजनों का मानना है कि उसके साथ जातिगत भेदभाव हुआ। इस आरोप को खारिज कर दिया गया है, लेकिन क्या शैक्षणिक संस्थानों में होने वाले जातिगत भेदभाव को झुठलाया जा सकता है?
दलित छात्रों को भोजन के लिए अलग पंक्ति में बिठाना, दलित स्त्री के हाथ से पका भोजन खाने से इंकार कर देना, दलित बच्चों और अध्यापकों को उच्च जाति के अध्यापकों द्वारा प्रताड़ित करने की कई खबरें बीते सालों में आती रही हैं। ये खबरें आती हैं, और चली जाती हैं। जिन शैक्षणिक ढांचों को विद्यालय, महाविद्यालय, विश्वविद्यालय जैसे बड़े-बड़े अर्थों वाले नामों से सजाया गया है, वो निचले और गरीब तबकों के लिए विद्या का आलय नहीं रह गए, प्रताड़ना गृह बनते जा रहे हैं। दुख की बात ये है कि सरकारों के पास ऐसी खबरों पर लीपापोती के लिए तमाम संसाधन उपलब्ध हैं और समाज को कोई फर्क ही नहीं पड़ रहा कि शिक्षा का माहौल कैसा बन गया है और उनके अपने बच्चों पर इस माहौल का क्या असर पड़ रहा है। अन्याय देखने और सहने वाले बच्चों के लिए न्याय की कैसी अवधारणा विकसित हो रही है, इस बारे में विचार हो ही नहीं रहा है। जब यही बच्चे भावी नागरिक बनेंगे, तो अपने सह नागरिकों के साथ उनका व्यवहार कैसा होगा। किस तरह वे संविधान के मूल्यों को देखेंगे और अपनाएंगे, ये बड़े सवाल हैं। लेकिन फिलहाल हम इस बात पर खुश हो जाएं कि जी-20 में भी हम समावेशी और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा का ढोल पीट रहे हैं।
जब भारत विश्वगुरु के एक और अवतार में खुद को दिखा रहा है, तब आईआईटी बॉम्बे की सर्वे रिपोर्ट पर नजर डाल ही लेना चाहिए। संस्थान के एससी/एसटी छात्र प्रकोष्ठ ने पिछले साल- फरवरी और जून में दो सर्वेक्षण किए थे। फरवरी के सर्वे में बताया गया है कि लगभग एक चौथाई एससी/एसटी छात्र मातृभाषा, ग्रामीण और कमजोर सामाजिक-आर्थिक पारिवारिक पृष्ठभूमि से आते हैं। इनमें अधिकतर अंग्रेज़ी में धाराप्रवाह नहीं हैं और इस आधार पर भी उनकी जाति को पहचाना जाता है। वहीं जून के सर्वेक्षण के निष्कर्षों के अनुसार, अजा/जजा के छात्र आरक्षण के लांछन से बचने के लिए अपनी पहचान छिपाना पसंद करते हैं। सर्वे में शामिल हुए 9 प्रतिशत छात्रों ने जाति को अपनी मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं का कारण बताया। चार छात्र ऐसे भी थे जिन्होंने प्रोफेसरों के जातिवादी और भेदभावपूर्ण रवैये को उनकी मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं की वजह बताया। रिपोर्ट में ये भी कहा गया है कि आईआईटी में एससी/एसटी छात्रों को कम क्षमतावान छात्रों के रूप में देखा जाता है।
कोई केवल जाति के आधार पर आपकी योग्यता का आकलन करे, यह बात कितनी पीड़ादायक है। लेकिन अमृतकाल में इस पीड़ा के जहर का कोई इलाज समझ ही नहीं आ रहा है। जो अचूक इलाज है यानी समाज से जाति प्रथा का पूरी तरह खात्मा, उसके लागू होने के आसार तो दूर-दूर तक नजर नहीं आ रहे। एक ओर आईआईटी जैसे संस्थानों में जातिगत भेदभाव बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित कर रहा है, दूसरी ओर एक नया चलन उच्च शिक्षण संस्थाओं में देखा जा रहा है। फरवरी-मार्च का महीना कॉलेजों में उत्सवों का होता है। इन उत्सवों में विद्यार्थियों की प्रतिभाओं को उभरने, निखरने का मौका मिलता है। इन आयोजनों में भारी धनराशि खर्च होती है, जिसके लिए कॉलेज प्रायोजकों की तलाश में रहते हैं।
दिल्ली के कई कॉलेजों में कहीं डेटिंग ऐप प्रायोजक हैं, कहीं ऑनलाइन खेल के बहाने जुआ यानी द्यूतक्रीड़ा को बढ़ावा देने वाले ऐप्स प्रायोजक हैं। छात्र इन ऐप्स को डाउनलोड करें और उन्हें इस्तेमाल करने में अपना वक्त दें, इनका मकसद यही है। जितने ज्यादा मोबाइल पर और जितनी देर इन ऐप्स को चलाया जाएगा, उन कंपनियों की उतनी अधिक कमाई होगी। ऑनलाइन खेलों का प्रचार बड़े फिल्मी सितारे भी करते हैं और इससे जो कमाई कंपनियों को होती है, उसका छोटा-मोटा हिस्सा खेलने वालों को इनामी राशि के तौर पर दिया जाता है। लेकिन ये प्रवृत्ति देश की भावी पीढ़ी को किस ओर धकेल रही है, क्या उच्च शिक्षण संस्थान इस बारे में विचार कर रहे हैं।
आईआईटी जैसे प्रतिष्ठित संस्थानों के साथ पोकर का नाम जुड़े, यह बड़ी विडंबना लगता है, लेकिन आज की सच्चाई यही है कि आईआईटी में खेल वाला जुआ और जाति का जुआ, दोनों चल रहे हैं।

No comments:

Post a Comment

Popular Posts