पुस्तक- आखिरी टुकडा (कहानी -संग्रह)
लेखक -संजय गौतम
प्रकाशक -प्रतिश्रुति, कोलकाता
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दास्तां 'आखिरी टुकड़ा' का
- अवनीश यादव
'हिंदी साहित्य और संवेदना का विकास' में रामस्वरूप चतुर्वेदी ने लिखा है, संसार को समझना दर्शन का काम है, उसे बदलना राजनीति का, और उसकी पुनर्रचना साहित्य का दायित्व है।' ऐसे में किसी भी भाषा के साहित्यकार से यह अपेक्षा होती है मानवीय मूल्य और उसके सरोकार को बचाए और बनाए रखने के लिए, जिनमें समय के साथ विकार उत्पन्न हो जाते हैं, रचनाकार अपनी कृतियों के मार्फ़त इन्हीं दोषों का विरेचन करे, जिससे पाठक समाज के सापेक्ष अपनी पक्षधरता को और मजबूती से महसूस कर सके। कुछ ऐसी ही प्रतिबद्धता कहानीकार संजय गौतम के कहानी संग्रह 'आख़िरी टुकड़ा' से गुजरते वक्त महसूस की जा सकती है|
जीवन के विविध राग- रंग को समेटे 'आखिरी टुकड़ा' में कुल जमा पच्चीस कहानियां हैं। संजय गौतम एक संवेदनशील, जिम्मेदार लेखक के तौर पर अपनी पहचान बना चुके हैं। इनकी कहानियों में उत्तर भारतीय समाज अपनी पूरी सरंचना और स्वरूप के साथ पैबस्त है।
संग्रह की प्रथम कहानी कुछ अधिक जिम्मेदारी लिए हुए है, संचयन के प्रतीक का भी। इस कहानी का नायक निम्न मध्य वर्गीय किसान बिसेसर है, जिसके पास अपने और परिवार के लिए खाने चबाने भर का खेत है। इसी खेत से जुड़ा है समाज में बिसेसर का मान-मरजाद। ग्रामीण श्रम -संस्कृति का वाहक बिसेसर कैसे ही अपने ही गांव के नई पीढ़ी की नज़र में अपने कर्म से त्याज्य प्रतीत होता है, नई पीढ़ी कहती है कि 'गोबर से देह बस्सा रही है।' प्रतिक्रिया में बिसेसर कह उठते हैं,"जाओ ससुर दलाली करके खाओ। इस चिंता में सन्निहित है ग्रामीण संस्कृति।
याद करिए प्रेमचंद ने भी कहा था, यदि किसान के बेटे को गोबर से बदबू आने लगे तो समझिए कि अकाल पड़ने वाला है।" इसका यह निहितार्थ कतई न निकाले कि प्रेमचंद और आखिरी टुकडा के बिसेसर दोनों खिलाफ़ है किसान के उन्नयन में। खिलाफ़ नहीं, बल्कि इस पक्ष में कि व्यक्ति के विकास की हर राह खुले पर अपनी संस्कृतियों की अवहेलना के दरवाजे से नहीं। बिसेसर का दुःख निम्न मध्य वर्गीय किसान का दुःख है, नई पीढ़ी के समक्ष पुरानी पीढ़ी का दुःख, पूंजी के समक्ष श्रम का दुःख, असंवेदनशीलता के समक्ष संवेदनशीलता का दुःख।
गांव और गांव की राजनीति को केंद्र में रखकर इस संग्रह में कुल तीन कहानियां हैं। मसलन 'बसंता का दुख', 'मुक्ति' और 'मास्टर सुलेमान',जिसमें से प्रथम दो पूरी तरह से गांव की उठापटक राजनीति पर, मास्टर सुलेमान में क्षेत्रीय स्तर की राजनीति और उसकी दुरभिसंधि देख सकते हैं।
पर्यावरण की चिंता के केंद्र में है 'गांव की गंगा' कहानी जिसमें पिता के रूप में आया चरित्र गांव वालों के पोखरी पाटने पर साफ़ कहता है,"तुम लोग समझ नही रहे हो, पोखरी पट जायेगी तो गांव से दाना- पानी उठ जायेगा। कुछ नहीं बचेगा गांव में -यह गांव की गंगा है।" 'अजन्मे की याद' बेरोजगारी के दंश की कथा है। परोक्ष रूप से 'अर्थराग' इसी संवेदनात्मक गलियारे की कहानी है। 'लखोटिया साहब' अब तक के चरित्रों से भिन्न समय के पालन में कट्टर, यह कट्टरता कहीं न कहीं उन्हें संवेदनहीनता की जद में ले जाती है। इसके चरित्र से जूझते हुए उपेंद्र नाथ अश्क के 'अंजो दीदी' नाटक का स्मरण आना लाज़िमी है।
इन कहानियों के हलचलों का स्वर साफ़ है, जिसे हर व्यक्ति सुन और समझ सकता है।
यूं भी कहा जा सकता है कि संजय गौतम की कहानियों की यही केंद्रीय प्रवृत्ति है ; जिसे महसूसने के लिए किसी आला (स्टेथेस्कोप) की जरूरत नहीं। इनके पास अपनी अलग कहन शैली और शब्द संपदा है। इनके बिम्ब, प्रतीक अधिकांशता गवई गंध से अभिसिंचित हैं। कुछ बिंब जो अलहदा लगें मसलन- चने की झाड़ में घुंघुरू की तरह चने का बजना, आकाश में महुए की तरह बिछे हुए चटक तारे, फूलगेन मकान और कोठरी के बीच दचकता हुआ पुल (अब इसे पढ़कर भला कौन न केदारनाथ सिंह की कविता 'हीराभाई' को याद करे)। और अंत में इतना ही कि यह प्रथम संग्रह पका हुआ आवा है, जिसमें कुम्हार भी मझा हुआ है और माटी भी करइल है।
(युवा समीक्षक व शोधार्थी, हिंदी विभाग, इलाहाबाद विवि।)
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