(मातृभाषा दिवस पर विशेष)
निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति को मूल
- शिवचरण चौहान
निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल, सुप्रसिद्ध साहित्यकार भारतेंदु हरिश्चंद्र के यह विचार आज भी प्रासंगिक हैं। हर वर्ष दुनिया 21 फरवरी को मातृभाषा दिवस मनाती है। हम भारत में भी मातृभाषा दिवस मनाते हैं किंतु भारतेंदु हरिश्चंद्र अभिलाषा अभी पूर्ण नहीं हुई। हिंदी हमारी मातृभाषा तो है किंतु अभी राष्ट्रभाषा नहीं बन पाई। अपनी ही भाषा में उन्नत होती है यह सबको मालूम है। रूस और चीन सहित कई देश इसके उदाहरण हैं, जिन्होंने अपनी मातृभाषा में बहुत बड़े-बड़े कार्य किए हैं। हिंदी की बातें तो सभी करते हैं किन दो हिंदी अभी तक आजादी के इतने साल बाद भी राष्ट्रभाषा नहीं बन पाई है। जबकि हिंदी हमारी मातृभाषा है।
भारत के अधिकांश भाषाएं संस्कृत और हिंदी से ही विकसित हुई हैं। भारत में हर साल 5 साल बाद लोकसभा और विधानसभा के चुनाव आते हैं किंतु किसी भी राजनीतिक दल के घोषणा पत्र में हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाए जाने का संकल्प नहीं दिया जाता। 2022 में उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी ने अवधी, ब्रजभाषा बुंदेली भाषा और भोजपुरी भाषा के लिए अलग-अलग अकादमी बनाने की बात तो की है किंतु हिंदी को किसी ने भी राष्ट्रभाषा बनाने का संकल्प पत्र में उल्लेख नहीं किया है।
वैसे तमाम राजनीतिक विरोध, अंतर्विरोध और अंग्रेजी के बढ़ते वर्चस्व के बावजूद मातृभाषा हिंदी के विकास को कोई अब रोक नहीं पायेगा। हिंदी अब बाजार की भाषा बन गई है, विज्ञापन की भाषा बन गई है। गूगल की भाषा बन गई है। कंप्यूटर और स्मार्टफोन में ऐसे सॉफ्टवेयर विकसित हो गए हैं जो किसी भी भाषा को हिंदी में अनुवाद कर देते हैं। हिंदी के खिलाफ एक अभियान कुछ बुद्धिजीवियों ने चलाया था कि हिंदी को रोमन लिपि में लिखा जाए किंतु देवनागरी लिपि, कंप्यूटर और गूगल में लोकप्रिय हो गई। स्मार्टफोन में पसंद की गई।
देवनागरी लिपि में जैसा बोला जाता है वैसा ही लिखा जाता है इस कारण यह लिपि वैज्ञानिकों ने सही पाई। इस सरकार ने या किसी भी सरकार ने हिंदी को राष्ट्रभाषा नहीं बनाया ना तो आरक्षण हटाया गया और ना हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाया गया। इसके बावजूद भी हिंदी लोकप्रिय होती चली गई। अखबारों पत्रिकाओं टीवी, चैनल और सिनेमा की भाषा तो हिंदी पहले से ही हो गई थी। हिंदी की फ़िल्में और हिंदी के टीवी चैनल दुनिया भर में देखे जाते हैं। आज हमारे देश का ना तो कोई धर्म है और ना कोई हमारी राष्ट्रभाषा फिर भी हम तरक्की कर रहे हैं उन्नति कर रहे हैं निज भाषा उन्नति अहै। भारतेंदु के कहने के बावजूद हिंदी उपेक्षित है।
चौबीस से अधिक भाषाओं वाला हमारा देश जिस विविधता में एकता का प्रतीक है, उसके मूल में वह भारतीयता है जो साथ चलने, साथ पलने में विश्वास करती है, जो यह मानती है इसी धर्म, जाति, वर्ग, वर्ण की सारी भिन्नताओं के बावजूद इस देश का मानस एक है। भारत में बोली-लिखी जाने वाली भाषाओं का साहित्य हमारी साझा सम्पत्ति है, जिस पर हर भारतीय को गर्व होना चाहिए। लेकिन गर्व के साथ, इस सुख के साथ, दुख की एक लकीर भी जुड़ी हुई है- यह दुख उस भाषाई वैमनस्य का है जो पिछले 75 बरसों में हमारे सामाजिक समरसता वाले ताने-बाने को कमज़ोर कर रहा है। जब-तब संकुचित मनोवृत्ति और सीमित स्वार्थों के चलते एक गर्म हवा-सी बहने लगती है हिन्दी के खिलाफ। समूचे भारतीय सोच को झुलसा देनेवाली हवा। चाहे इसके पीछे हमारी राजनीति हो या संकुचित स्वार्थ, इसका कुफल पूरा भारत भुगत रहा है।
अंतर्राष्ट्रीय भाषा के नाम पर और वैश्वीकरण की दुहाई देकर न केवल अंग्रेज़ी हम पर थोपी गई है और आज भी थोपी जा रही है, बल्कि उसके माध्यम से भारत की भाषाओं को आपस में लड़ाया भी जा रहा है। ऐसा वातावरण बनाया जा रहा है जिसमें भारत की भाषाएं एक-दूसरे को परस्पर विरोधी समझें, जबकि वास्तविकता यह है कि यदि कोई लड़ाई है तो वह भारतीय भाषाओं के थोपे जाने के खिलाफ़ है, क्योंकि अंग्रेज़ी देश की मानसिकता, देश के सोच पर थोपी जा रही है। जब महात्मा गांधी ने यह कहा था कि 'दुनिया से कह दो कि गांधी को अंग्रेज़ी नहीं आती' तो इसके पीछे इसी खतरे का अहसास था। हम इस खतरे को समझ नहीं पाये, इसी का परिणाम है कि हमें जोड़ने वाली भाषाएं हमें तोड़ने का माध्यम बन रही हैं।
दिल्ली सहित भारत के अनेक विश्वविद्यालयों में हिंदी पढ़नेवाले छात्रों की संख्या तेज़ी से बढ़ रही है। दुनिया भर के दो सौ विश्व विद्यालयों में हिंदी पढ़ाई जाती है। हिंदी विरोध की राजनीति त्याग कर उसे सीखने और समझने का सकारात्मक संकेत पूरे देश से मिलने लगा है। अन्य भारतीय भाषाओं को सीखने की प्रवृत्ति भी बढ़ी है। इस सुखद समाचार के पीछे मुख्य कारण बाज़ार है, साहित्य, राजनीति या भाषा प्रेम ही नहीं है। अपनी बाईस समृद्ध बोलियों के साथ हिंदी विश्व के लगभग पचास देशों में फैले 85 करोड़ से अधिक लोगों की अभिव्यक्ति की भाषा बन गयी है। भारत के 65 प्रतिशत लोग और मॉरीशस, फ़िजी, सूरीनाम, ट्रिनीडाड तथा दक्षिण अफ्रीका में रहनेवाले लाखों लोगों की यह भाषा विश्व की तीसरी सबसे बड़ी भाषा के रूप में प्रतिष्ठित है।
दुनिया के दो सौ से अधिक विश्वविद्यालयों में हिंदी के भाषाई और साहित्यिक पक्ष का शिक्षण और उस पर अनुसंधान हो रहा है। इतिहास इसकी पुष्टि करता है कि भारत के कई राज्यों में राज्यभाषा के रूप में हिंदी (हिंदुस्तानी) का प्रयोग शताब्दियों पूर्व भी हो रहा था। मराठों के शासन में हिंदी का राजभाषा के रूप में प्रयोग होता था। डॉक्टर केलकर ने अपने शोध प्रबंध 19 वीं शती के हिंदी पत्र' में बड़ी संख्या में पत्तों, दात्रों, बहियों का उल्लेख करके इसकी पुष्टि की है। टीपू सुल्तान और केरल में कोच्चीन के राजा के साथ हुई संधि में हिंदुस्तानी सिखाने की व्यवस्था का भी उल्लेख था। कारण अलग-अलग हो सकते हैं लेकिन यह निर्विवाद है कि हिंदी को प्रशासन और शिक्षा के क्षेत्र में स्थापित करने में उन लोगों की भूमिका महत्त्वपूर्ण रही है जिनकी मातृभाषा हिंदी नहीं थी।
हिंदी में व्याकरण लेखन की शुरुआत एक डच विद्वान 'जोशुआ केटलियर' ने 1695-98 लखनऊ में की थी। सन 1744 में बेंजामिन शुल्तज ने 'ग्रामेटका हिंदोस्तानिका' पुस्तक लिखी थी। यह पुस्तक लैटिन भाषा में थी।
स्वतंत्रता संग्राम के दौरान 1928 में कांग्रेस तथा सभी दलों की एक बैठक स्वाधीन भारत के संविधान निर्माण के लिए हुई थी, पंडित नेहरू उसके अध्यक्ष थे। उस समय हिंदुस्तानी' को सर्वमान्य भाषा घोषित किया गया। सन 1936 में जब प्रांतीय सरकारें बनी थीं। यह स्पष्ट निर्देश था कि 'हर प्रांत की सरकार भाषा' राज्य के कामकाज के लिए उस प्रांत की भाषा होनी चाहिए। परंतु हर जगह अखिल भारतीय भाषा होने के नाते 'हिंदुस्तानी को सरकारी तौर पर माना जाना चाहिए। उस समय की 'संविधान सभा में मतदान के दौरान हिंदी के पक्ष में 63 और हिंदुस्तानी पर 32 मत पड़े थे। इसी तरह 45 मतों के बहुमत से हिंदी की देवनागरी लिपि स्वीकार की गई थी। 14 सितंबर 1949 को हिंदी को राजभाषा के रूप में मान्यता दी गई थी। इसके बाद सरकारें राजनीति के चक्कर में पड़कर हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाना भूल गईं। मातृभाषा हिंदी अपने ही घर में बेगानी हो गई हिंदी की जगह अंग्रेजी का ही वर्चस्व कायम रहा। लार्ड मैकाले की शिक्षा व्यवस्था अभी भी चल रही है।
हिंदी के चैनल दुनिया भर में देखे जाते हैं और लोकप्रिय भी हैं। अधिकांश विज्ञापन हिंदी में बनाए जाते हैं। आज बाजार की भाषा हिंदी है। संपर्क की भाषा हिंदी है किंतु इसके बावजूद भी हमारी सरकार हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने के लिए मुंह चुराती नजर आती है।
(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार, विचारक और वरिष्ठ पत्रकार हैं)
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