सोच में बदलाव जरूरी
इलमा अज़ीमहम 21वीं सदी में चल रहे हैं। लेकिन बहुत ही अफसोस के साथ कहना पड़ रहा है कि हमारा समाज आज भी बाल विवाह, आनर किलिंग और दहेज हत्या जैसी बुराइयों से जूझ रहा है। अब समय आ गया है कि हम अपनी सोच में बदलाव लाएं। हमारे समाज में सोच में बदलाव लाने की जरूरत है। बेटियों की साक्षरता में वृद्धि और कामकाजी क्षेत्र में लगातार उनकी बढ़ती भूमिका के बावजूद यदि दहेज उत्पीड़न की घटनाओं में वृद्धि होती है, तो यह शर्मनाक स्थिति ही कही जाएगी।
राष्ट्रीय क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो यानी एनसीआरबी की वह रिपोर्ट चौंकती है कि साल 2023 के दौरान देश में दहेज उत्पीड़न की घटनाओं में 14 फीसदी मामले ज्यादा दर्ज किए गए हैं। इस वर्ष के दौरान दहेज के कारण देशभर में 6,100 महिलाओं की मौत दर्ज की गई है। एक समय नारा लगाया जाता था कि दुल्हन ही दहेज है। लेकिन हमारा समाज इसके उलट चल रहा है। दरअसल इसके पीछे पितृसत्तात्मक सोच भी जिम्मेदार है। इस बात पर विचार किया जाना चाहिए कि दहेज प्रथा उन्मूलन के लिये सख्त कानून होने के बावजूद इस कुप्रथा पर रोक क्यों नहीं लग पा रही है।
आखिर क्यों दहेज निषेध अधिनियम के अंतर्गत मामले लगातार बढ़ रहे हैं। समाज में साक्षरता वृद्धि और जागरूकता अभियानों के बावजूद स्थिति जस की तस है। विडंबना यह है कि दहेज उत्पीड़न के ज्यादातर मामले बड़े हिंदी प्रदेशों में सामने आए हैं। सबसे ज्यादा उत्तर प्रदेश में और फिर बिहार दूसरे नंबर पर है। ये हजारों मामले समाज में स्त्रियों की विडंबनापूर्ण स्थिति को ही दर्शाते हैं। समाज में उपभोक्तावादी सोच के चलते भी दहेज की प्रवृत्ति को बढ़ावा मिल रहा है।
हमें विचार करना होगा कि समाज में दहेज के संकट की जड़ों पर कैसे प्रहार किया जाए। राष्ट्र का विकास तब तक एकांगी ही रहेगा, जब तक आधी दुनिया को समाज में सम्मानजनक स्थान नहीं मिलता। दहेज के मामलों में न्याय भी शीघ्र देने की आवश्यकता है। आज जरूरत इस बात की है कि बेटियों को आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनाया जाए, ताकि वे समाज में सम्मानजक ढंग से बिना किसी पर निर्भर रहकर जीवन यापन कर सकें।
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