उम्मीदें तो जगी हैं

इलमा अज़ीम 

चुनाव आयोग ने बिहार विधानसभा चुनाव की तारीखें घोषित कर दी हैं। बिहार देश और दक्षिण एशिया का सबसे गरीब राज्य है। साक्षरता दर में भी पिछड़़ा है। प्रति व्यक्ति आय 32,227 रुपए है, जो राष्ट्रीय औसत की एक-तिहाई है। 1960 के दशक में बिहार देश की शीर्ष 5 अर्थव्यवस्थाओं में एक था और गुजरात, कर्नाटक सरीखे राज्यों से भी आगे था, लेकिन दशकों से बिहार पिछड़ता हुआ आज देश के सबसे निचले पायदान पर है। मतदाताओं के भीतर यह सवाल स्वाभाविक होगा कि नई सरकार उनकी आर्थिक स्थिति को संवारेगी अथवा बिहार कंगाल ही होता रहेगा? हर बार की तरह बिहार विधानसभा का मौजूदा चुनाव उन सभी लोगों के लिए उम्मीदें लेकर आया है, जो खुद चुनाव मैदान में उतरने जा रहे हैं। उनके समर्थकों की भी उनकी कामयाबी से आस लगी है। 



कार्यकर्ताओं का बड़ा वर्ग ऐसा भी है, जिसकी सेहत उस दल की जीत या हार पर निर्भर करती है, जिससे उसकी प्रतिबद्धता जुड़ी होती है। लेकिन सबसे ज्यादा उम्मीद पहली बार खुद चुनावी मैदान में उतरने जा रहे प्रशांत किशोर को है। उम्मीद तो तेजस्वी यादव को भी है। उन्हें लगता है कि इस बार उनके नाम के बाद अतीत में लगे उप विशेषण से मुक्ति मिल जाएगी। उम्मीद उस बीजेपी को भी है, जो अपने सहयोगी की तुलना में संख्या बल में ताकवतर होने के बावजूद छोटे भाई की भूमिका निभाने को मजबूर रही है। 

आस तेजप्रताप को भी है कि वे लालू-राबड़ी की छाया से दूर होने के बावजूद चुनावी मैदान में कमाल दिखाने में वे सफल रहे हैं। देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस को भी ऐसी ही उम्मीदें हैं। उसे भावी सरकार में हिस्सेदारी की आस है। लेकिन अन्य दलों की तुलना में उसकी उम्मीद कुछ अलग भी है। उसे लगता है कि अगर इस चुनाव में तेजस्वी की अगुवाई वाले उसके गठबंधन ने मोदी-नीतीश की जोड़ी को पटखनी दे दी तो दिल्ली के ताज तक की उसकी यात्रा आसान हो जाएगी। 



उम्मीदें खोखली नहीं होतीं। उनका कुछ ठोस आधार भी होता है। इस लिहाज से देखें तो हर पार्टी और उसके बड़े नेताओं की आस के कुछ ठोस आधार हैं। तेजस्वी यादव को लगता है कि उनके गठबंधन में शामिल कांग्रेस के चलते उनके पारंपरिक मुस्लिम-यादव गठजोड़ को राज्य के सवर्ण तबके के एक वर्ग का वोट मिल सकता है। पिछले चुनाव में उनका गठबंधन नीतीश की अगुवाई वाले गठबंधन की तुलना में महज साढ़े सोलह हजार के करीब वोटों से ही पिछड़ गया था। उन्हें लगता है कि इस बार इस कमी को ना सिर्फ उनका गठबंधन पूरा कर लेगा, बल्कि आगे भी निकल जाएगा। लेकिन यह भी याद रखना होगा कि पिछली बार चिराग पासवान की अगुआई वाली लोक जनशक्ति पार्टी एनडीए से अलग होकर लड़ रही थी।(10-10-25)



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