साइप्रस यात्रा के जरिए तुर्की को कूटनीतिक जवाब


- उमेश चतुर्वेदी
ऑपरेशन सिंदूर के बाद एक टीवी चैनल के कार्यक्रम में प्रधानमंत्री मोदी से पूछा गया कि ऑपरेशन सिंदूर के दौरान पाकिस्तान स्थित आतंकी ठिकानों पर भारत की कार्रवाई इतनी सटीक क्यों रही? पाकिस्तान की खुफिया सेवा इसे भांप क्यों नहीं पाई, पाकिस्तानी राजनेता और सेना क्यों भारतीय कार्रवाई का अंदाजा नहीं लगा पाए। सवाल खत्म होते ही प्रधानमंत्री ठठाकर हंस पड़े। हंसते हुए उन्होंने कहा कि पाकिस्तानी सेना और राजनीति भारत के विपक्षी दलों की ही तरह हैं। जिस तरह वे मेरे बारे में अंदाजा नहीं लगा सकते, कुछ उसी तरह पाकिस्तानी भी अंदाजा नहीं लगा सकते।
दिल्ली में केंद्रीय सत्ता संभालने के बाद प्रधानमंत्री मोदी के कदमों को देखिए। हर बार वे चौंकाते रहे हैं। ऑपरेशन सिंदूर के बाद जब समूचा विपक्ष भारत सरकार की विदेश नीति की नाकामी को लेकर मोदी सरकार पर निशाना लगा रहा था, प्रधानमंत्री ने साइप्रस की यात्रा करके देश को चौंका दिया है। भूमध्य सागर के द्वीपीय देश साइप्रस की यात्रा का अचानक से ऐलान होना और कनाडा जाते हुए रास्ते में प्रधानमंत्री मोदी का साइप्रस उतरना और वहां के शीर्ष नेताओं से मिलना भारतीय विदेश नीति का चौंकाऊं फैसला ही है। देश के शीर्ष नेताओं की विदेश यात्राएं अरसा पहले से तय होती हैं, उसकी जानकारी राजनीति के साथ ही पत्रकारिता को भी होती है। लेकिन प्रधानमंत्री की साइप्रस यात्रा अचानक से हुई है। भारतीय विदेश मंत्रालय ने प्रधानमंत्री की साइप्रस यात्रा का 14 मई को अचानक ऐलान किया। साइप्रस की राजधानी निकोसिया में प्रधानमंत्री मोदी ने वहां के राष्ट्रपति निकोस क्रिस्टोडौलाइड्स से बातचीत भी की। ऐसे में सवाल यह उठ सकता है कि साइप्रस की यह अचानक यात्रा क्यों ?
इस सवाल के जवाब में एक बार फिर ऑपरेशन सिंदूर के दौरान हुई घटनाओं की ओर लौटना होगा। याद कीजिए, तब पाकिस्तान ने भारत पर ड्रोन के जरिए सैकड़ों हमले किए थे। उन हमलों को बेशक भारत के एयर डिफेंस सिस्टम ने नाकाम कर दिया। साइप्रस की यात्रा के लिए हमें उन हमलों में इस्तेमाल हुए ड्रोन को देखना होगा। पाकिस्तान ने जिन ड्रोन से हमले किए, ज्यादातर तुर्की में बने सोनगार ड्रोन थे। हवाई हमलों में तुर्की के इन ड्रोन को बेहद मारक माना जाता है। हालांकि वे भारतीय एयर डिफेंस सिस्टम के सामने बेकार ही साबित हुए। कूटनीतिक हलकों को पता है कि तुर्की के राष्ट्रपति रेचेप तैय्यप अर्दोआन ने पाकिस्तान को उपलब्ध कराया। अर्दोआन ने पर्दे के पीछे से पाकिस्तान का साथ दिया। इतना ही नहीं, भारत ने जब इस बात को अंतरराष्ट्रीय समुदाय के सामने रखा तो अर्दोआन ने ट्वीटर पर ‘पाकिस्तान-तुर्की दोस्ती जिंदाबाद’ लिखकर एक तरह से भारत के आरोप को साबित कर दिया। इसे भारत को मुंह चिढ़ाना भी कह सकते हैं। यह उस तुर्की का कदम था, जिसे भारत ने दो साल पहले दिल खोलकर मानवीय आधार पर सहयोग दिया था। छह फरवरी 2023 को तुर्की में 7.8 तीव्रता का भूकंप आया था, उस झटके में तुर्की में 53 हजार लोगों की मौत हो गई थी, हजारों लोग घायल हो गए थे। जान-माल के भारी नुकसान के बाद भारत ने मानवीय सहायता के साथ ही विशेषज्ञों की टीम के साथ बचाव दल भेजा था। राहत के तुर्की पहुंचने वाली टीमों में भारत की टीम भी शामिल थी।


तुर्की के राष्ट्रपति ने जब ऑपरेशन सिंदूर के बाद पाकिस्तान से दोस्ती को जगजाहिर किया तो उसे भारत के लोगों ने भारत के लिए मुंह चिढ़ाना माना। रही-सही कसर पूरी हुई मई के आखिर में पाकिस्तानी प्रधानमंत्री शाहबाज शरीफ की तुर्की की यात्रा से। तब भारत के सामने अर्दोआन के रूख को लेकर कोई गुंजाइश ही नहीं रही। तुर्की को लेकर भारतीय समुदाय की सोच अब भी ऐसी ही है। ऐसा नहीं कि पहली बार तुर्की ने भारत के खिलाफ पाकिस्तान का पक्ष लेते हुए ऐसा कदम उठाया है। संयुक्त राष्ट्र संघ समेत कई अंतरराष्ट्रीय मंचों पर पाकिस्तान के पक्ष में अर्दोआन सहयोगी भूमिका पेश करते रहे हैं। इन वजहों से तुर्की को लेकर भारत में गुस्सा भी बहुत रहा है। कश्मीर के मसले पर तुर्की हर बार पाकिस्तान के साथ ही खड़ा रहा है।

प्रधानमंत्री मोदी का साइप्रस दौरा भारत के उसी गुस्से की अभिव्यक्ति और भारत को मुंह चिढ़ाने के अर्दोआन के प्रयासों का जवाब माना जा सकता है। इसकी वजह है कि साइप्रस और तुर्की के बीच जारी बरसों पुराना विवाद। साइप्रस में यूनानी और तुर्की मूल के लोग रहते हैं। तुर्की के दोनों समुदायों में नस्ली आधार पर विवाद रहा है। साइप्रस में साल 1974 में तत्कालीन सरकार के खिलाफ यूनानी मूल के आतंकी समूहों ने तख्तापलट की कोशिश की। इसे तुर्की ने अपने लोगों के खिलाफ युद्ध माना। इसके बाद तुर्की ने साइप्रस पर हमला कर दिया। इस दौरान तुर्की की सेनाओं ने साइप्रस के दूसरे नंबर के मशहूर शहर वरोशा पर कब्जा कर लिया। यह शहर अपने बहुमंजिला भवनों के लिए प्रसिद्ध रहा है। यहां पूरे साल सैलानी आते रहते थे। लेकिन जब से तुर्की के कब्जे में यह शहर है, सैलानियों के लिए तरस रहा है। तुर्की की सेना के 35 हजार जवान यहां तैनात हैं। इसके बाद से एक तरह से यह द्वीपीय देश दो हिस्सों में बंट गया है। तुर्की के कब्जे वाले इलाके को तुर्की ने राष्ट्र का दर्जा दे रखा है। दिलचस्प है कि इस राष्ट्र के अस्तित्व को तुर्की के अलावा कोई देश स्वीकार नहीं करता। साइप्रस यूरोपीय संघ का भी सदस्य है और एक जनवरी 2026 से वह संघ का अध्यक्ष बनने जा रहा है। भारत और यूरोपीय संघ के बीच मुक्त व्यापार समझौते को लेकर बातचीत चल रही है। भारत को उम्मीद है कि साइप्रस के अध्यक्ष रहते यूरोपीय संघ और भारत के बीच मुक्त व्यापार समझौता हो जाएगा। साइप्रस ने कई मौकों पर भारत की संयुक्त राष्ट्र संघ सुरक्षा परिषद में स्थायी सीट की दावेदारी का समर्थन कर चुका है।

मोदी ने साइप्रस जाकर दो संदेश देने की कोशिश की है। पहला संदेश तुर्की के लिए है। भारत ने जता दिया है कि वह साइप्रस को सहयोग देगा और साइप्रस से सहयोग लेगा। वैसे भी साइप्रस के आईटी उद्योग और पर्यटन में भारत के हजारों लोग कार्यरत हैं। साइप्रस स्थित भारतीय हाईकमीशन के मुताबिक साइप्रस में साढ़े ग्यारह हजार लोग रहते हैं। मोदी की साइप्रस यात्रा का दूसरा संदेश भारतीयों के लिए है। पहले भारत से बहुत सारे सैलानी तुर्की जाते  थे, लेकिन अब वे साइप्रस जाएंगे। वैसे पाकिस्तान के सहयोग के खुलासे के बाद से ही तुर्की के लिए बुक टिकटों को भारतीयों ने कैंसल कराना शुरू कर दिया था। मोदी की कोशिश साइप्रस को बढ़ाकर तुर्की की आर्थिक रीढ़ पर चोट पहुंचाना है। साथ ही तुर्की को संदेश देना है कि जरूरत पड़ने पर भारत तुर्की के खिलाफ कड़े कदम भी उठा सकता है।



प्रधानमंत्री ने कनाडा जाते हुए साइप्रस की यात्रा से तुर्की को भी चौंकाया है। तुर्की के राष्ट्रपति अर्दोआन ने 2021 में कहा था कि साइप्रस की जिम्मेदारी तुर्की की है। यानी एक तरह से वह साइप्रस के एकीकरण के संयुक्त राष्ट्र संघ के प्रस्ताव के खिलाफ हैं। हालांकि अर्दोआन के कदम का इजरायल कड़ा विरोध करता है। साइप्रस की मौजूदा सरकार के साथ इजरायल मजबूती से खड़ा है। जाहिर है कि तुर्की के कदम का इजरायल विरोध कर रहा है। भारतीय प्रधानमंत्री की साइप्रस की यात्रा के बाद इजरायल, भारत और साइप्रस संबंधों को भी गति मिलने की संभावना है। दुनिया इन दिनों चीन के ‘वन बेल्ट-वन रोड’ के जवाब में मध्य पूर्व के देशों के साथ यूरोप ‘इंडिया-मिडिल ईस्ट-यूरोप इकोनॉमिक कॉरिडोर’ यानी आईएमईसी पर काम कर रहा है। भारत की साइप्रस यात्रा इस कॉरीडोर में भारत की संभावनाओं की भी खोज करती है। साइप्रस जाने वाली पहली भारतीय प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी रहीं, जिन्होंने 1983 में इस देश का दौरा किया था, इसके उन्नीस साल बाद अटल बिहारी वाजपेयी ने साइप्रस की यात्रा की थी। इसके 23 साल बाद मोदी की यात्रा हो रही है। यह यात्रा तुर्की को जवाब भी है और भारत की यूरोपी संघ से सीधे कारोबारी संपर्क की कोशिश भी।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तम्भकार हैं)

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