अनैतिक राजनीति
इलमा अजीम
बशीर बद्र का एक शेर है, ‘दुश्मनी जम कर करो, लेकिन यह गुंजाइश रहे/फिर कभी हम दोस्त बन जायें तो शर्मिंदा न हों।’ यह बात हमारे राजनेताओं को समझ क्यों नहीं आती? पिछले चुनाव में महाराष्ट्र के तत्कालीन मुख्यमंत्री ने अपने तब के विरोधी पर भ्रष्टाचार का गंभीर आरोप लगाते हुए भरी सभा में कहा था कि वे उसे जेल भिजवा कर दम लेंगे। उन्होंने यह भी कहा था कि वह राजनेता जेल में ‘चक्की पीसिंग, पीसिंग’ करता रहेगा। आज वह पूर्व मुख्यमंत्री और उनके ‘चक्की पीसिंग’ वाले मंत्रीजी मंत्रिमंडल में साथ-साथ बैठते हैं! क्या वे दोनों भूल गये हैं कि उन्होंने एक-दूसरे के बारे में क्या-क्या कहा था? और यह ‘सच’ महाराष्ट्र के दो नेताओं का ही सच नहीं है — सारे देश में ऐसे अनेक-अनेक उदाहरण बिखरे पड़े हैं। अक्सर सोचता हूं कि ऐसे लोग जब ‘फिर से दोस्त’ बन जाते हैं तो एक-दूसरे से आंख कैसे मिलाते होंगे? क्या उन्हें सचमुच शर्म नहीं आती? यह दुर्भाग्य ही की बात है कि आज हमारी राजनीति में इस तरह की शर्म के लिए कोई स्थान बचा नहीं दिख रहा। शर्म तो इस बात पर भी आनी चाहिए कि हमने राजनीति को पूरी तरह अनैतिक बना दिया है। मेरे एक वरिष्ठ पत्रकार मित्र से मैंने एक बार यह जानना चाहा था कि कौन-सा शब्द ठीक है, राजनीतिक या राजनैतिक? मेरे उस मित्र ने तत्काल जवाब दिया था, ‘राजनीतिक ही सही हो सकता है– राजनीति में नैतिकता होती ही कहां है?’ फिर हम दोनों हंस पड़े थे।
पर आज सोच रहा हूं यह बात हंसने की नहीं थी, दुखी होने की थी। पीड़ा होनी चाहिए थी हमें यह सोच कर कि हमारी राजनीति में नैतिकता के लिए कोई स्थान नहीं बचा। सुनने में अच्छा लगता है यह नारा कि ‘बटेंगे तो कटेंगे’। पर पूछा जाना ज़रूरी है कि क्या सोचकर यह नारा लगाया गया था? किसके बंटने की बात है और कौन किसे काटेगा? उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री ने यह नारा लगाते हुए बांग्लादेश का नाम लेकर यह स्पष्ट कर दिया था कि वे बहुसंख्यकों और अल्पसंख्यकों की बात कर रहे हैं। धर्म के आधार पर किसी को दुश्मन मान लेना, अपने लिए खतरा मान लेना, किसी भी सभ्य समाज के लिए उचित नहीं माना जा सकता। सवाल हिंदुओं के बंटने का नहीं है, जातियों के बंटने का भी नहीं है, सवाल यह है कि हम किसके लिए बंटने-बांटने की बात कर रहे हैं। इस देश का कोई भी नागरिक, चाहे वह किसी भी धर्म का मानने वाला हो, प्रथमतः: भारतीय है। हिंदुओं के एक होने की बात कहने का सीधा-सा मतलब गैर हिंदुओं के खिलाफ एकजुट होने की बात करना है। गलत है यह सोच। कोई भी व्यक्ति सिर्फ इसलिए बुरा नहीं हो सकता कि वह किसी धर्म-विशेष को मानता है। इसका विलोम भी इतना ही सही है। धर्म-विशेष का होने से कोई अच्छा नहीं हो जाता। अच्छा या बुरा होना हमारी करनी और सोच पर निर्भर करता है। करनी ही नहीं, कथनी भी हमें अच्छा या बुरा बनाती है।
यह बात हमारे नेताओं को भी समझनी होगी। जब तक हम देश के 140 करोड़ नागरिकों को भारतीय के रूप में नहीं स्वीकारेंगे, बंटने और कटने की भाषा बोलते रहेंगे, हम अपने आप को विवेकशील समाज का हिस्सा नहीं मान सकते। राजनीति में सब कुछ माफ वाली मानसिकता से उबरना होगा हमें। और यह मान कर भी बैठना गलत है कि राजनीति में नैतिकता के लिए कोई स्थान नहीं है। फिर, जो जितने ऊंचे पद पर बैठा है, उसका दायित्व उतना ही अधिक होता है। कब समझेंगे इस बात को हमारे नेता? कब बोलने से पहले तौलने की बात समझेंगे वे?
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