तेज दौड़ती दुनिया में एक धीमा सफर

- चिन्मय मिश्र
कन्याकुमारी से शुरु हुई ‘भारत जोड़ो यात्रा’ की क्या परिणिति होगी, यह विचारणीय नहीं है, विचारणीय यह है कि इस तेज दौड़ती दुनिया में जब 3,500 किलोमीटर की दूरी 2-3 घंटे में पूरी की जा सकती है, तो एक व्यक्ति, एक वर्ग, एक राजनीतिक दल और तमाम गैर सरकारी संस्थाएं और संगठन इस दूरी को करीब 3,600 (तीन हजार छह सौ) घंटों में क्यों पूरी करना चाह रहे हैं? जब सब कुछ 4 इंच के मोबाइल में सिमट गया है तब ये लोग खुला आसमान, खुला समुद्र क्यों देखना चाह रहे हैं? सवाल भी हमारे हैं और जवाब भी हमारे पास ही हैं। कोई हमें झकझोर रहा है, नींद से जगाने के लिए। राहुल गांधी के नेतृत्व में हो रही इस यात्रा को अतीत की एक अन्य यात्रा की पृष्ठभूमि में देखना बेहद रुचिकर होगा।
आज से करीब 90 बरस पहले 26 मार्च 1932 को राहुल गांधी के परदादा, पं. जवाहर लाल नेहरु ने अपनी बेटी इंदिरा गाँधी जो की दादी थीं को नैनी जेल से एक पत्र लिखा था। यह जवाहरलाल नेहरु की पुस्तक विश्व इतिहास की झलक में ‘‘छुट्टी के दिन और स्वप्न-यात्रा’’ शीर्षक से संकलित है। उस विस्तृत पत्र के तीन अनुच्छेदों पर निगाह डालते हैं और देखते हैं कि ये वर्तमान परिस्थिति से कैसे जुड़ते हैं। इनको पढ़ना यह समझाता है कि कैसे एक गद्य, पद्य या कविता बन जाता है। यात्रा को कैसे वर्णित किया जा सकता है और भाषा का लालित्य कितना मनोहारी होता है। पं. नेहरु के लेखन का चमत्कार इनमें हमें नजर भी आता है।



वे लिखते हैं ‘‘क्या तुम्हें हमारी कन्याकुमारी की यात्रा की याद है? कहते हैं कि यहाँ कुमारिका देवी निवास करती हैं और अपने देश की रक्षा करतीं हैं और जिसे हमारे नामों को तोड़-मरोड़कर भ्रष्ट करने में कुशल पश्चिम – निवासी ‘केप कामोरिन’ कहते हैं। उस समय हम वहां सचमुच भारत माता के चरणों में ही बैठे थे, और वहां हमने अरब सागर और बंगाल की खाड़ी के समुद्र जलों का संगम देखा था और हमारे मन में यह कल्पना पैदा हुई थी मानों कि ये दोनों भारत की पूजा कर रहे हैं। उस जगह पर अद्भुत शांति थी और मेरा मन भारत के दूसरे छोर पर कई हजार मील दूर दौड़ गया, जहां हिमालय की चोटियां कभी न गलने वाली बर्फ का ताज पहने रहतीं हैं और जहां ऐसी ही शांति रहती है। लेकिन इन दोनों के बीच में तो काफी रगड़े-झगड़े हैं, गरीबी है मुसीबतें हैं।’’
‘‘हम कन्याकुमारी से बिदा हुए और उत्तर की ओर चले और तिरुवांकुर और कोचीन होते हुए और मलाबार की समुद्री झीलों को पार करते हुए आगे बढ़े। ये सब स्थान कितने सुंदर थे और हमारी नांव चांदनी रात में पेड़ों से छाए हुए किनारों के बीच में से होकर कैसी फिसलती चली जाती थी, मानों हम स्वप्न लोक में विचर रहे हों। इसके बाद हम मैसूर, हैदराबाद और बंबई होते हुए आखिर में इलाहाबाद आ पहुंचे। यह नौ महीने पहले की यानी जून के महीने की बात है |” (इतनी लंबी नावयात्रा?)
यह तीसरा अनुच्छेद उनके पत्र का सार है और भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का निचोड़ भी। वे लिखते हैं,‘‘लेकिन आजकल तो भारत के जितने रास्ते हैं, वे सब देर-सबेर एक ही जगह पहुंचा देते हैं। सारी यात्राएं स्वप्न की हों या असली जेलखाने में ही खत्म होती हैं। और इसलिए मैं अपनी पुरानी परिचित दीवारों के अंदर पहुंच गया, जहाँ सोचने के लिए और तुम्हें पत्र लिखने के लिए-चाहे वे तुम्हारे पास पहुंचे या न पहुंचे बहुत समय मिलता है। लड़ाई फिर शुरु हो गई है और हमारे देशवासी स्त्री और पुरुष, लड़के और लड़कियों स्वतंत्रता की लड़ाई के लिए इस देश को गरीबी की लानत से छुड़ाने के लिए निकल पड़े हैं। लेकिन स्वतंत्रता की देवी मुश्किल से खुश होती है, पुराने जमाने की तरह आज भी वह अपने भक्तों से नर बलि चाहती है।’’
वर्तमान में लौटते हैं। कन्याकुमारी से भारत जोड़ो यात्रा प्रारंभ हो चुकी है और हिमालय तक पहुंचेगी। बीच मे रगड़े-झगड़े, गरीबी और मुसीबतें आज अपने नए स्वरूप में मुँह बाये खड़ी हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ का नवीनतम मानव सूचकांक बता रहा है कि हमारे यहां जीवन प्रत्याशा यानी जीवन की अवधि पिछले 2 वषों में 2 वर्ष कम हो गई है। गरीबी बढ़ती जा रही है। बेरोजगारी अपने चरम पर है। ऐसे समय में भारत द्वारा 75 वर्ष पूर्व अर्जित आजादी के सामने जो संकट खड़े हैं, उनकी अपनी विशिष्टता और विशेषता है। ये संकट बढ़ते जा रहे हैं और व्यक्ति की स्वतंत्रता को लगातार कम किया जा रहा है। ऐसे में इस यात्रा ने कम से कम इस बात की शुरुआत तो कर ही दी है कि अब लोग थोड़ा-बहुत आत्मावलोकन करने लगे हैं। भारत जोड़ो यात्रा अभी पहले हफ्ते में ही है। जिन मुद्दों की बात राहुल गांधी कर रहे हैं, उनका जवाब देने के स्थान पर उनके कपड़ों और जूतों के दाम पर बात करके मुद्दों को भटकाना, जतला रहा है कि भारत कुशासन से अशासन की ओर बढ़ चला है।
हमें याद रखना होगा कि यदि गांधी भारत की परिपूर्णता के प्रतीक हैं, तो नेहरु भारतीय लोकतंत्र की भावना के प्रतिमान हैं। बिना नेहरु के भारतीय लोकतंत्र स्थायी हो ही नहीं सकता था। इसलिए आजादी के पहले का उनका वह वाक्य कि ‘‘स्वतंत्रता की देवी मुश्किल से खुश होती है, और पुराने जमाने की तरह आज भी वह अपने भक्तों से नर बलि चाहती है।” नए परिप्रेक्ष्य में प्रासंगिक हो गया है। भारतीय लोकतंत्र पर आसन्न संकट अब कमोवेश गहराता जा रहा है। विधायिका, कार्यपालिका व न्यायपालिका के बाद अब मीडिया का एकपक्षीय हो जाना बेहद खतरनाक भविष्य की ओर इशारा कर रहा है। आजादी के संघर्ष के दौरान प्रशासन के सारे अंग तो ब्रिटिश शासकों के अधीन थे लेकिन मीडिया का बड़ा हिस्सा संघर्ष के साथ था। इससे भी बड़ी बात यह थी कि जनसमुदाय का एक बड़ा हिस्सा आजादी के आंदोलन के समर्थन में था। अंग्रेज शासक महात्मा गांधी और नेहरु को भी इस तरह से बंदी नहीं रख पाए जैसे आज सिद्दीक कप्पन रहे या भीमा कोरेगांव के आरोपी बिना मुकदमा चले बरसों बरस जेल में हैं। स्वतंत्र भारत में अस्पताल में भर्ती होने के लिए भी उन्हें उच्च व सर्वोच्च न्यायालय में अपील करना पड़ती है। जमानत देने तक के अधिकांश मामले सर्वोच्च न्यायालय में पहुंचते हैं। सीबीआई, ईडी, एनआईए आदि की तो बात करना भी अब औचित्यपूर्ण नहीं रह गया है।
ऐसे में भारत जोड़ो यात्रा का पहला हफ्ता तो कम से कम उम्मीद भरा नजर आ रहा है और यात्रा की खबरों को कम से कम प्रिंट मीडिया में थोड़ा बहुत स्थान मिलने लगा है। इस यात्रा के माध्यम से बहुत दिनों बाद इलेक्ट्रानिक समाचार मीडिया पर दर्शकों ने निगाह डाली भी है। परंतु उम्मीद अभी भी जगी नहीं है। कांग्रेस को चाहिए कि वह टी-शर्ट की कीमतों को मफलर की कीमतों से न उलझाए। गंभीर सवालों को लेकर यह यात्रा शुरु हुई है और गंभीरता से ही उन्हीं प्रश्नों के उत्तर या प्रतिप्रश्नों पर केंद्रित रहना चाहिए। फिर भी राजनीतिक दलों की अपनी रणनीति है और शायद वे उसे बेहतर अंजाम दे सकते हैं। अगले 150 दिन भारतीय राजनीति में बेहद महत्वपूर्ण साबित हो सकते है। इस यात्रा की सार्थकता का पूरा दारोमदार भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस पर ही है।

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