पर्यावरण के लिए गंभीरता जरूरी
मौजूदा ग्लोबल वार्मिंग से मुकाबले के लिये किये जा रहे प्रयास वक्त की कसौटी पर खरे नहीं उतर रहे हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि क्लाइमेट चेंज के मद्देनजर जो कदम वैश्विक स्तर पर उठाये जाने चाहिए थे, वे नहीं उठाये जा रहे हैं। वास्तव में यह जितनी बड़ी चुनौती है, उसके मुकाबले हमारे प्रयास नाकाफी हैं। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि ग्लोबल वार्मिंग की चुनौती के मुकाबले के लिये दुनिया में जो वैचारिक साम्य बना है, उसमें आईपीसीसी के अनुमानों व संस्तुतियों की भी महत्वपूर्ण भूमिका रही है, जिसकी भावभूमि पर पेरिस जलवायु समझौते जैसी महत्वपूर्ण पहल हो सकी है। आईपीसीसी के आकलन से ही यह बात स्पष्ट हुई है कि बदलते वक्त के साथ चुनौती और जटिल होती जा रही है। पहले कहा जा रहा था कि इंडस्ट्रियल क्रांति से पूर्व की स्थिति के मुकाबले तापमान वृद्धि को दो फीसदी तक ही सीमित किया जाये। लेकिन बदलते हालात व ग्लोबल वार्मिंग के घातक प्रभावों को देखते हुए अब कहा जा रहा है कि इसे डेढ़ फीसदी तक सीमित रखा जाये। तभी हम मानव जीवन व खाद्य शृंखला को बचा पायेंगे। साथ ही निष्कर्ष यह भी है कि जिस गति से हमें इस चुनौती के मुकाबले के लिये कदम उठाने चाहिए थे, वह बहुत धीमी है, जिसके चलते जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को कम करने में बड़ी कामयाबी मिलना संदिग्ध नजर आता है। ऐसे में खेती व उद्योग जगत को नयी चुनौतियों के अनुरूप ढालना होगा। हालांकि, करीब दो साल की कोरोना महामारी की मार ने ग्लोबल वार्मिंग के घातक प्रभाव के खिलाफ लड़ाई को कमजोर किया है क्योंकि इस संकट में पहली प्राथमिकता लोगों को महामारी से बचाने की थी। इसके बावजूद कई विकसित देशों में ऐसी फसल उगाने के लिये शोध-अनुसंधान किये जा रहे हैं, जिससे उन किस्मों का पता लगाया जा सके जो कम पानी, अतिवृष्टि और उच्च तापमान से कम प्रभावित होती हैं। सही मायनों में अब इस बात पर जोर देने की जरूरत है कि बदलते मौसम के अनुरूप हम जीवन को कैसे ढालते हैं। यदि हम अब भी न जागे तो बहुत देर हो जायेगी। हाल ही के दिनों में पूरी दुनिया में अतिवृष्टि, अनावृष्टि, सूखे, बाढ़ व तूफानों की आवृत्ति बढ़ी है, जिसके चलते बड़े आसन्न संकट की आहट महसूस की जा रही है। इसका नकारात्मक असर फसलों की पैदावार पर निश्चित रूप से पड़ेगा। ऐसे में जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों को कम करने के लिये नई जीवनशैली विकसित करने की जरूरत होगी। यदि ऐसा नहीं किया गया तो हमें इसकी बड़ी कीमत चुकानी होगी। सही मायनों में आईपीसीसी की हालिया रिपोर्ट हमारी आंख खोलने वाली है जो बताती है कि वक्त आ गया है कि हम ग्लोबल वार्मिंग के दुष्प्रभावों को कम करने के लिये इसके अनुरूप जीवन ढालने की तरफ बढ़ें। यह समस्या का वैज्ञानिक आधार पर विश्लेषण करने की जरूरत भी बताती है। इसके साथ ही पर्यावरण प्रदूषण जैसी समस्याओं के प्रति भी हमें गंभीर होने की जरूरत है; जिसके चलते हर साल लाखों जानें चली जाती हैं, जिसके मूल में लगातार बिगड़ते पर्यावरण की भी बड़ी भूमिका है।
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