Sunday, 28 November 2021

जलधार



यादों की सुलगती फुहारें
हुँडरू के सीने में
उतरती चली आ रही है 
ना जाने किन-किन दिशाओं से 
अजस्र धार बन के।

छिटक कर 
अभी-अभी घास की नोंक पर 
जा टँगी है एक लरजती बूँद 
और बता रही है 
चमक-चमक के 
बीते, पसीजते पलों की लंबी दास्तान।

चोंच डूबोते ही चिड़िया ने 
जान लिया है 
जलधार के सीने में 
रक्त रिसते हिया का ठिकाना।
रक्त रंगे चोंच को 
अब
धो डालना चाहती है 
गहरे जलधार में।


इधर-उधर बिखरे मनकों सी बूँदें
छूटते पलों की अनकही दस्तावेज 
थकियाकर रही है  
गर्भनाल में।

बीतता पल 
दूर तलक फैल गया है 
अवसाद बनकर।
घुमड़-घुमड़ कर जल 
बन रहा है गंदला 
नहीं है वहाँ ठिकाना 
नीली सरहदों का
न ही दिख रही है 
घास की हरी-हरी परछाइयाँ।

पाँव डूबोकर बैठ गई है 
जलधार वहीं, 
खुरदुरे पत्थरों की गोद में 
अब है उसे इंतजार 
जल के थिराने का...!

- रंजना शर्मा
कोलकाता

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