आजादी के 77 सालों में देश ने बहुत तरक्की की है। विश्व में भारत ने कई क्षेत्रों में अपना परचम लहराया है। भारत विश्व की पांचवीं बड़ी अर्थव्यवस्था बन गया। अब चौथी और तीसरी बनने की तरफ तेजी से अग्रसर है। इसके बावजूद कुछ बुनियादी झंझटों से भारत मुक्त नहीं हो सका। इसके जिम्मेदार हैं देश के राजनीतिक दलों के नेता। नेताओं ने अपने चुनावी फायदे के लिए देश को कई बार सांप्रदायिकता की आग में झोंका है। ऐसी समस्याओं से न सिर्फ सामाजिक समरसता में विघ्न पड़ा है, बल्कि देश की तरक्की के रास्ते में बाधा पड़ी है। उत्तर प्रदेश के संभल में मंदिर-मस्जिद विवाद से हिंदू-मुस्लिम एकता में फिर से दरार पड़ी है। ऐसे विवाद देश में लगातार बने हुए हैं। संभल की जामा मस्जिद में मंदिर होने के प्रमाण के अदालत के सर्वे के बाद हिंसा भडक़ उठी। भीड़ ने पुलिस पर पथराव किया। पुलिस ने फायरिंग की जिसमें 5 लोग मारे गए।
इस मुद्दे को शांतिपूर्ण तरीके से सुलझाने के बजाय इस पर जम कर वोटों की राजनीति की गई। मस्जिदों के स्थान पर मंदिर होने का मुद्दा नया नहीं है। इतिहास में ऐसे दफन हो चुके मुद्दों को उठाने से देश की एकता-अखंडता प्रभावित हो रही है। इसकी किसी को चिंता नहीं है। हकीकत में नेताओं को धार्मिक भावनाओं की नहीं, धु्रवीकरण करके वोट बटोरने की आकांक्षा ज्यादा है। इन मुद्दों से सिवाय वोटों के फायदे के कुछ हासिल नहीं होगा। इससे तरक्की की रफ्तार पर लगाम जरूर लगती है। देश के नेता तो मानो ऐसे ज्वलनशील मुद्दों की तलाश में रहते हैं। बस उन्हें सिर्फ मौका मिलना चाहिए। सांप्रदायिकता की आग को बुझाने के बजाय उसमें घी डाल कर राजनीतिक हित साधने का नेताओं का रवैया पुराना है।
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संभल की घटना ने एक बार फिर पूजा स्थल अधिनियम 1991 पर सवाल खड़े कर दिए हैं। उपासना स्थल अधिनियम इस हद तक कमजोर हो चुका है कि भारत में बाबरी-अयोध्या जैसे नए विवादों की बाढ़ आ सकती है। संभल की इस मस्जिद के पहले इस तरह के आदेश पहले वाराणसी के ज्ञानवापी मस्जिद और मथुरा की शाही ईदगाह मस्जिद के लिए भी दिए गए थे। पूजा स्थल विधेयक को लेकर 2019 में सुप्रीम कोर्ट की पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने अयोध्या राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद पर अपने फैसले में कहा था कि ऐतिहासिक गलतियों को कानून हाथ में लेकर ठीक नहीं किया जा सकता।
ऐसे विवादित मुद्दों से बचने के लिए जरूरी है कि पूजा स्थल कानून को और सशक्त बनाया जाए। यदि ऐसा संभव नहीं है तो इस कानून को समाप्त कर दिया जाए। इतिहास में समा चुके सांप्रदायिक लिहाज से बेहद संवेनदशील मुद्दों को फिर से खोदा जाएगा, तो देश की छवि कलंकित होती रहेगी।
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