लोभतंत्र की चुनौती
 इलमा अजीम 
पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव में लोकलुभावन वायदों और गारंटियों का जो कोलाहल सुना जा रहा है, वह कालांतर देश के आर्थिक अनुशासन व योग्य जनप्रतिनिधियों के चयन के लिये एक चुनौती बन सकता है। ऐसा नहीं है कि रेवड़ियां बांटने का खेल देश में पहले नहीं होता था, लेकिन आज जिस पैमाने पर हो रहा है, वह हर देशभक्त की चिंता का विषय होना चाहिए। कहीं न कहीं, मुफ्त की गारंटियों का यह खेल जवाबदेह प्रशासन व आर्थिक स्थिरता पर कालांतर गहरी चोट करेगा। वक्त की जरूरत है कि मतदाताओं को लॉलीपॉप देने के बजाय उन्हें ऐसे अवसर दिये जाने चाहिए ताकि वे कालांतर आत्मनिर्भर बन सकें। 



फिर वे देश के आर्थिक विकास में स्थायी योगदान दें। लेकिन इस तरह मुफ्त की योजनाओं और गारंटियों से सिर्फ हमारा राजकोषीय घाटा ही बढ़ेगा। मतदाता यदि किसी राजनीतिक दल की दूरगामी नीतियों व विकास योजनाओं को नजरअंदाज करके तात्कालिक लाभ को प्राथमिकता देगा तो भविष्य में उसे इसकी कीमत चुकानी पड़ेगी। मतदाता का लोभ हमारी चुनाव प्रक्रिया को भी संकट में डालता है। जाहिर बात है कि मुफ्तखोरी की संस्कृति के बूते सत्ता में आने वाला नेता कालांतर सरकारी संसाधनों के दोहन को अपनी प्राथमिकता बनायेगा। जो धन उसने चुनाव के दौरान बांटा है उसका कई गुना येन-केन-प्रकारेण वसूलेगा। जिससे लोकतंत्र में लूटतंत्र की मानसिकता को प्रोत्साहन मिल सकता है। सही मायनों में मुफ्त के उपहारों की हमेशा बड़ी कीमत चुकानी पड़ती है। यह हमारे लोकतंत्र की भी विफलता है कि आजादी के साढ़े सात दशक बाद भी हम अपने लोकतंत्र को इतना सजग व समृद्ध नहीं बना पाये कि मतदाता अपने विवेक से अपना दूरगामी भला-बुरा सोचकर मतदान कर सके। अतीत के अनुभव बताते हैं कि जिस भी राज्य ने मुफ्त खाद्यान्न,पानी, बिजली व सब्सिडी बांटी है उसकी अर्थव्यवस्था भविष्य में चरमराई ही है। सही मायनों में मुफ्त कुछ नहीं होता, वह करदाताओं की पसीने की कमाई से पैदा होता है। देश को कल्याणकारी नीतियों की जरूरत है।

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